सब धन धूली समान !

कृष्‍णदेवराय जयनगर के राजा थे। उनके राजगुरु थे व्‍यासराय । उसी काल में राजा कृष्‍णदेवराय के राज्‍य में संत पुरंदरदास नामक संत भी रहते थे ।

संत पुरंदरदास जी का जीवन सादगी भरा था । वे ईश्‍वर के भक्‍त होने के कारण लोभ से भी मुक्‍त थे । राजाने अपने गुरु व्‍यासराय के मुख से संत पुरंदरदास जी की प्रशंसा अनेक बार सुनी थी । तब राजा के मन मे संत पुरंदरदास जी की परीक्षा लेने का विचार आया । उसने सोचा राजगुरु इतनी प्रशंसा करते है तो उनकी परीक्षा लेने के बाद ही उनकी सच्‍चाई ध्‍यान में आएगी ।
राजा कृष्‍णदेवराय ने सेवकों द्वारा संत पुरंदरदासजी को बुलवाया और उनको चावल की भिक्षा दी । संत पुरंदरदासजी प्रसन्‍न होकर बोले, ‘‘महाराज ! मुझे इसी तरह कृतार्थ किया करें ।’’ घर लौटने के बाद पुरन्‍दरदास जी ने प्रतिदिन की तरह लायी हुई भिक्षा की झोली उनकी पत्नी सरस्‍वती देवी के हाथ में दे दी । सरस्‍वती देवी जब वह चावल बीनने बैठीं, तो उन्‍हें चावल में छोटे छोटे हीरे दिखाई दिए । उन्‍होंने उसी क्षण अपने पति से पूछा, ‘‘आप कहां से भिक्षा लाए हैं ?’’ पुरंदरदासजी ने कहा, ‘‘राजमहल से !’’ तो पत्नी ने वह हीरे घर के पास घूरे में फेंक दिए ।

अगले दिन फिरसे संत पुरन्‍दरदासजी भिक्षा लेने राजमहल पहुंचे । तो राजा को उनके मुख पर हीरों का प्रकाश दिखाई दिया । राजा ने फिर से उनके झोली में चावल के साथ हीरे डाल दिए । ऐसा क्रम एक सप्‍ताह तक चलता रहा ।

सप्‍ताह के अंत में राजा ने गुरु व्‍यासराय से कहा, ‘गुरुदेव ! आप तो कहते थे कि पुरन्‍दर जैसा निर्लोभी दूसरा कोई नहीं, मगर मुझे तो वे लोभी जान पडे । यदि विश्‍वास न हो, तो उनके घर चलिए और सच्‍चाई को अपनी आंखों से देख लीजिए ।’
वे दोनों संत पुरन्‍दरदासजी की कुटिया पर पहुंचे । उन्‍होंनें देखा कि लिपे-पुते आंगन में तुलसी के पौधे के पास सरस्‍वती देवी चावल बीन रही हैं । राजा के मुख पर हंसी आई । उसने मन में ही सोचा कि वह उचित समय पर वहां पहुंचे हैं ।अब पुरन्‍दरदासजी का सच्‍चा रूप सभीको पता चलेगा । राजा कृष्‍णदेवराय आगे आए और उन्‍होंने सरस्‍वती देवी से कहा, ‘बहन ! भिक्षा में मिले चावल बीन रही हो ।’ सरस्‍वती देवी ने कहा, ‘हां भाई ! क्‍या करूं, कोई गृहस्‍थ भिक्षा में ये कंकड डाल देता है, इसलिए बीनना पडता है । प्रतिदिन यह कंकड निकालने में मेरा बहुत समय व्‍यर्थ हो जाता है । देखकर तो ऐसे लगता है कि कोई जानबूझकर चावल में कंकड डाल देता है । मेरे पती कहते हैं कि भिक्षा देने वाले का मन न दुखे, इसलिए जो देते हैं वह भिक्षा खुशी से ले लेता हूं । वैसे इन कंकडों को चुनने में बडा समय लगता है ।’

राजा ने कहा, ‘ओ बहन ! तुम बडी भोली हो । ये कंकड नहीं । ये तो मूल्‍यवान हीरे दिखाई दे रहे हैं ।’ इस पर सरस्‍वती देवी ने राजा की ओर देखा और स्‍पष्‍टता से कहा, ‘आपके लिए ये हीरे होंगे, हमारे लिए तो कंकड ही हैं । हमने जब तक धन के आधार पर जीवन व्‍यतीत किया था, तब तक हमारी दृष्टि में ये हीरे थे । पर जब से भगवान विठ्ठल का आधार लिया है और धन का आधार छोड दिया है, तब से ये हीरे हमारे लिए कंकड ही हैं ।’ और वह बीने हुए हीरों को बाहर फेंक आई ।

यह देख गुरुदेव व्‍यासरायजी के मुख पर मृदु मुस्‍कान फैल गई और राजा कृष्‍णदेवराय ने लज्‍जित होकर सरस्‍वती देवी के चरणों पर झुक गए ।

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