प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी की कालीमाता भक्ति !

प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी

श्रीरामकृष्ण परमहंसजी कालीमाता के असीम भक्त थे । श्रीरामकृष्ण परमहंस भक्ति के आदर्श उदाहरण हैं । कालीमाता ने भी उनपर कितना और कैसे प्रेम किया ?, यह भक्तिमय प्रसंग आज हम सुनेंगे ।

श्रीरामकृष्ण परमहंसजी काली माता के मंदिर के पुजारी थे । वे प्रतिदिन देवी की पूजा करते थे; परंतु उन्हें कभी देवी के दर्शन नहीं हुए थे । एक बार उन्हें ऐसा लगा कि ‘यदि देवी यहीं हैं, तो वे मुझे दर्शन क्यों नहीं देतीं ?’ तब वे देवी के दर्शन हेतु व्याकुल होकर प्रार्थना करने लगे । वे देवी को प्रार्थना करते थे कि ‘‘हे देवी, आप वास्तव में यदि यही हैं, तो मैं आपका रूप क्यों नहीं देख सकता ?’’

एक दिन ऐसा आया कि श्रीरामकृष्णजी देवी के सामने उनका स्मरण कर पूजा कर रहे थे । देवी के दर्शन न होने के कारण वे कहने लगे कि ‘यदि मुझे देवी के दर्शन नहीं होते, तो मेरे जीवन का क्या अर्थ है ? मुझे यह जीवन ही नहीं चाहिए ।’ ऐसा बोलकर उन्होंने देवी के हाथ में स्थित शस्त्र उठा लिया और वे स्वयंपर वार करने ही वाले थे कि इतने में मूर्ति से साक्षात कालीमाता प्रकट हुईं ! भगवान का स्मरण व्याकुलता से करने पर भगवान स्वयं प्रकट होते है, यह हमने भक्त प्रल्हाद, रामकृष्ण परमहंस इनसे सीखे है । आप भी ऐसे प्रयास कर भगवान की अनुभूति ले सकते हैं ।

इस प्रसंग के उपरांत रामकृष्ण परमहंसजी में देवी के प्रति भक्ति और अधिक बढ गई । वे देवी के अनन्य भक्त थे । रामकृष्ण कभी अपनी चिंता नहीं करते थे । जैसे छोटा बालक अपनी माता से सबकुछ मांग लेता है, उसी प्रकार रामकृष्णजी माता से सबकुछ मांगते थे । वे प्रत्येक कृत्य देवी की आज्ञा से ही करते थे । देवी काली उनकी माता ही थी । उनके पास माता की छोटी मूर्ति थी जिससे वे सदैव बातें करते थे । वे देवी को भोजन खिलाते और देवी भी उसे ग्रहण कर लेतीं ।

जब रामकृष्णजी काली माता के अनुसंधान में रहते अर्थात उनका अखंड स्मरण करते थे, तब वे देहभान भूल इतना आनंदित होकर नाचते-गाते थे कि कभी कभी वे अचेत हो जाते । इस प्रकार उनकी उच्च स्तर की भाव की अवस्था रहती थी; परंतु उनकी जीवनशैली तो लोगों को पागलों के जैसी लगती थी ।

एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, ‘‘आप ऐसा कहते हैं कि देवी हर एक वस्तुमें, मनुष्यमें, और प्राणीमें है, तो आप इस छोटी सी मूर्ति को कालीमाता कैसे कहते हैं ?’’ उस समय रामकृष्णजी ने उससे पूछा, ‘‘सूर्य पृथ्वी से कितना बडा है ?’’ उस व्यक्ति ने यह उत्तर दिया, ‘‘सूर्य पृथ्वी से ९ लाख गुना बडा है ।’’ तब रामकृष्णजी ने उसे पूछा, ‘‘वह इतना बडा होते हुए भी हमें इतना छोटा क्यों दिखाई देता है ?’’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘‘सूर्य भले ही पृथ्वी से ९ लाख गुना बडा हो; परंतु वह हम से बहुत दूर है; इसलिए वह हमें इतना छोटा दिखाई देता है ।’’ इसपर रामकृष्ण परमहंसजी बोले, ‘‘इसी प्रकार काली माता आपसे बहुत दूर है; इसलिए वे आपको छोटी दिखती हैं । मैं तो देवी के गोद में ही होता हूं; इसलिए वे मुझे बडी लगती हैं । आप उनकी ओर बाह्य दृष्टि से देखते हैं; परंतु मैं उनकी ओर श्रद्धा के साथ सृष्टि के शक्तिरूप में देखता हूं ।’’

इससे हमें यह सीख मिलती है कि यदि हमारे मन में भगवान के प्रति अपार भक्ति हो, तो भगवान हमारे साथ सूक्ष्मरूप में निरंतर होते हैं । इस प्रसंग से शिक्षा लेकर हम सभी भगवान की ऐसी भक्ति करेंगे कि उन्हें हमारी भक्ति के कारण दर्शन देने की इच्छा होगी ।

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