विठ्ठलभक्‍त नरहरि सुनार !

संत नरहरी सुनार जी

नरहरी सुनार नामक महानभक्‍त था । उसका जन्‍म भूमि पर वैकुंठ माने जानेवाले श्री पंढरपुर धाम में हुआ था । पंढरपुर में भगवान श्रीकृष्‍ण के साथ साथ शिवोपासना भी प्राचीन काल से चली आ रही है । नरहरी सुनारजी के पिता महान शिव भक्‍त थे, प्रतिदिन शिवलिंग को अभिषेक करके बिल्‍वपत्र अर्पण करने के बाद ही वे काम पर जाते थे । भगवान शिव की कृपा से ही उनके घर नरहरी का जन्‍म हुआ था ।

बालक नरहरि को मल्लिकार्जुन मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करने में एवं स्‍तोत्र पाठ करने में बहुत आनंद आता था । उन्‍हें अनेक शिव स्‍तोत्र कंठस्‍थ थे और पुराणों की कथाएं भी नरहरी जी बडे आनंद से श्रवण करते थे; परंतु पुराणों में उन्‍हें केवल भगवान शिवजी की लीलाएं ही प्रिय लगती थी । नरहरी जी केवल भगवान शिवजी को ही मानते, श्री कृष्‍ण के दर्शन के लिए कभी न जाते थे ।

पंढरपुर में भगवान विठ्ठल के लाडले संत श्री नामदेव का कीर्तन नित्‍य हुआ करता था । सब गांववासी वहां जाते थे, परंतु नरहरीजी कभी नहीं जाते थे। कारण केवल इतना ही था की संत नामदेव श्रीकृष्‍ण के भक्‍त थे । कुछ समय बीतने पर नरहरी के माता पिता ने सोचा की इनका विवाह करा दिया जाए । एक दिन मल्लिकार्जुन भगवान के मंदिर से निकलते नरहरीजी माता-पिता को दिखाई दिए । माता पिता ने उन्‍हें बुलाया और नरहरि के विवाह की इच्‍छा बताई । उन्‍होंने कहा, ‘‘मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा,; परंतु मेरी एक शर्त है । पिताजी आपको ज्ञात है की हमारा घर एक शिवालय बन गया है । मेरी यही शर्त है की मेरी पत्नी मेरी शिव भक्‍ति में बाधक न बने ।’’ पिताजी ने कहा , ‘‘ठीक है । हम ऐसी ही भक्‍त कन्‍या तुम्‍हारे लिए देखेंगे ।

शिवभक्‍ति यही हमारा अमूल्‍य धन है, यह जिस कन्‍या को मान्‍य होगा वही कन्‍या बहु के रूप में हम भी देखना चाहते हैं ।’’
कुछ ही दिनों में गंगा नाम की एक सरल कन्‍या से नरहरीजी का विवाह हो गया । विवाह के बाद नरहरीजी को उनके माता-पिता ने परंपरा से चलता आ रहा सोने का व्‍यवसाय सौंपा । नरहरी और उनकी पत्नी दोनोंही आनंद से भगवान की सेवा करते थे ।

नरहरी निरंतर ‘ॐ नमः शिवाय ।’ का नामजप करते थे । उनके सेवा पूजा से प्रभावित होकर बहुत से लोग उनकी और आकर्षित हो गए थे । पंढरपुर में उनका बहुत नाम हो गया । नरहरीजी लोगो से कहते थे की ‘हम सुनार है । शिवनाम का सोना चुराने का हमारा पीढियों से चलता आ रहा धंदा है । इस नाम के सामने जगत का सब वैभव फीका लगता है ।’

नरहरी कभी भगवान विठ्ठल के मंदिर नहीं जाते थे । वे सबको कहते थे की ‘अन्‍य देवता भ्रम है । यदि राम परमात्‍मा होते, तो उन्‍हें शिवजी की शरण में जाने की क्‍या आवश्‍यकता पड गई ? भक्‍त पुण्‍डलिक जिन के कारण भगवान विठ्ठल पंढरपुर में विराजमान है, वह भी विठ्ठल भक्‍ति के पहले शिवभक्‍ति ही करते थे । उनके भक्‍त उन्‍हें समझाने का प्रयास करते की भगवान एक ही है, केवल उनके नाम में भेद है; परंतु नरहरी को यह बात नहीं जंचती थी । भगवान शिवजी और श्रीकृष्‍ण एक ही है, इसका ज्ञान नरहरी को करवाना ही चाहिए ऐसा एक दिन भगवान शिवजी और भगवान विठ्ठलजी अर्थात श्रीकृष्‍णजी ने सोचा ।

नरहरि प्रत्‍येक काम भगवान शिवजी की साक्षी से करते थे । एक दिन उनके दुकान पर एक धनवान साहूकार आया । नरहरी ने उनका स्‍वागत किया और कहां, ‘‘सेठजी कैसे आना हुआ ?’’ साहूकार ने कहां, ‘‘हमको पुत्र रत्न हुआ है ।’’ नरहरि बोले, ‘‘भगवान शिवजी की कृपा है ।’’ उसपर साहूकार बोले, ‘‘नहीं नहीं । भगवान विठ्ठल अर्थात श्रीकृष्‍णजी की कृपा है । हम ने भगवान पांडुरंग से कहा था की यदि हमारे घर पुत्र ने जन्‍म लिया, तो हम आपके लिए सोने का कमर पट्टा बनवाएंगे । अब पुत्र का जन्‍म हुआ है, तो भगवान के लिए सोने का कमर पट्टा बनाने की मेरी इच्‍छा है ।’’

नरहरीजी ने कहां, ‘‘अच्‍छा है, पंढरपुर में अन्‍य बहुत से सुनार है । आपको कोई भी कमर पट्टा बनाकर दे देगा ।’’ साहूकार ने पूछां, ‘‘आप क्‍यों नहीं बनवा सकते ? आप तो सबको आभूषण बना कर देते है ।’’ नरहरीजी ने बताया, ‘‘हमसे नहीं हो पाएगा । हम तो भगवान शिवजी के भक्‍त है । हम सबको शिवजी ही मानते है ।’’ उस पर साहूकार बोले, ‘‘तो फिर भगवान विठ्ठल को भी शिवरूप मानो । हरि-हर तो एक ही है ।’’ नरहरीजी बोले, ‘‘ऐसा आपको लगता होगा, परन्‍तु मुझे ऐसा नहीं लगता ।’’ साहूकार ने उन्‍हे बहुत समझाया परंतु नरहरीजी नहीं माने । अंत में साहूकार ने कहा , ‘‘पंढरपुर में आप बहुत कुशल कारीगर के रूप में प्रसिद्ध है । आपके हाथ से यह आभूषण बने यही मेरी इच्‍छा थी, इसलिए मैंने आपसे बनवाने को कहा था ।’’ नरहरी जी उन्‍हे बताया की वे शिव मंदिर को छोडकर अन्‍यत्र किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं करते । इसलिए वे विठ्ठल की मूर्ति की कमर का नाप नहीं ले सकेंगे ।

साहूकार को उसी समय एक युक्‍ति सूझी और उन्‍होने कहां की, ‘‘ठीक है । मै भगवान विठ्ठल की कमर का नाप लेकर आता हूं । आप उसी नाप से कमर का आभूषण बनवा देना ।’’ नरहरी उनकी बात और इच्‍छा का मान रखते हुए आभूषण बनवाने का काम ले लिया । साहूकार जी ने आगे कहा, ‘‘दो दिन बाद एकादशी है, उस दिन सुबह तक आभूषण तैयार रखना । मैं तुरन्‍त भगवान की कमर का नाप लाकर देता हूं ।’’ भगवान की कमर का नाप मिल गया और नरहरी सुनार ने आभूषण बनाने का काम आरम्‍भ कर दिया । नरहरीजी ने अत्‍यंत सुंदर रत्नजडित कमर पट्टा बनवा कर तैयार किया ।

एकादशी के दिन साहूकार के घर महापूजा की तैयारी आरम्‍भ हो गई । पीताम्‍बर पहन कर चांदी की थाली में पूजा की सामग्री और आभूषण लेकर साहूकार सब के साथ श्री विट्ठल मंदिर गए । महापूजा संपन्‍न होने के बाद साहूकार ने कमर का आभूषण भगवान को पहनाने के लिए लिया तो आश्‍चर्य ! वह नाप से चार ऊंगली अधिक था । साहूकार को थोडा क्रोध आया । उन्‍हें लगा की नरहरी सुनार ने जान बूझकर ऐसा कार्य किया है; फिर उन्‍होंने फिर विचार किया की ‘नरहरी भले ही शिवभक्‍त है, परन्‍तु वह कपटी अथवा दुष्ट नहीं है ।’ साहूकार ने अपने एक सेवक को नरहरी सुनार के पास कमर पट्टा लेकर भेजा ।

नरहरी ने साहूकार के सेवक को पूछा, ‘‘क्‍या कहते हो ? उन्‍हें आभूषण पसंद तो आया न ?’’ सेवक ने कहा ‘‘उत्तम है; परंतु चार ऊंगली बडा हो गया है । सब परेशान हो रहे हैं । चार ऊंगली कम कर दीजिये ।’’ नरहरीजी को आश्‍चर्य लगा, उन्‍होंने चार ऊंगली कम कर दिया । सेवक ने कमर पट्टा ले जाकर साहूकार को दिया ।

साहूकार पुनः वह कमरपट्टा भगवान पांडुरंग की कमर पर बांधने लगे, तो क्‍या आश्‍चर्य ! कमर पट्टा चार ऊंगली कम हो गया ।

अब तो साहूकार स्‍वयं चलकर नरहरी सुनार की दुकान पर गए । पीताम्‍बर पहने साहूकार को आते देखकर नरहरी ने कहा, ‘‘सेठजी ऐसे पूजा के बीच में ही पीताम्‍बर पहने कैसे आ गए ?’’ साहूकार बोले, ‘‘क्‍या बताऊं ? अब यह कमर पट्टा चार ऊंगली कम पड रहा है ।’’ नरहरीने बताया, ‘‘भगवान शिवजी को साक्षी मानकर कहता हूं की मैंने आभूषण दिए गए नाप के अनुसार ही बनाया है ।’’ साहूकार बोले, ‘‘मै भी भगवान पांडुरंग को साक्षी मानकर कहता हूं की पहले आभूषण चार ऊंगली अधिक और अब चार ऊंगली कम हो गया है । देखिएं, मुझे लगता है, आपकी छवि खराब न हो इसलिए आप स्‍वयं मंदिर में आकर कमरपट्टा ठीक कर दीजिए ।’’

यह सुनकर नरहरी जी बोले, ‘‘देखिये सेठजी, मै अपने निश्‍चयानुसार दूसरे देव का दर्शन नहीं करूंगा । हां, आप मेरी आंखो पर पट्टी बांध कर मुझे मंदिर में ले चलिए, मै कमर पट्टा ठीक कर दूंगा ।’’ दोनों भगवान के मंदिर में पहुंचे और नरहरी सुनार ने नाप लेने हेतु अपने हाथ भगवान की कमर पर लगाए । मूर्ति को हाथ लगाते ही उन्‍हें एक विलक्षण अनुभव हुआ । विठ्ठलजी के कमर पर हाथ रखते ही उन्‍हें लगा की ‘यह तो व्‍याघ्रचर्म है, जो भगवान शिवजी धारण करते है ।’ कांपते हाथो से उन्‍होंने भगवान के अन्‍य अंगो का स्‍पर्श किया । आश्‍चर्य ! उन्‍हें भगवान् के एक हाथ में कमंडलू एवं दूसरे हाथ में त्रिशुल का स्‍पर्श हुआ । उन्‍हें अपना हाथ मूर्ति के गले पर ले जाने पर सर्प का स्‍पर्श हुआ ।

नरहरी ने कहा, ‘‘यह तो विट्ठल की मूर्ति नहीं है, यह तो साक्षात शिवशंकर लग रहे है । अरेरे ! मैन व्‍यर्थ ही अपनी आंखो पर पट्टी बांध रखी है ? मेरे प्राण प्रिय भगवान ही मेरे सामने हैं । उन्‍होंने शीघ्रआंखों पर बांधी हुई पट्टी हटाई और देखा तो सामने भगवान विठ्ठलजी के दर्शन हो गए । उन्‍हें कुछ नहीं समझ आ रहा था । उन्‍होंने फिर आंखों पर पट्टी बांध दी और कमर पट्टा बांधने लगे, परन्‍तु पुनः उनको व्‍याघ्रचर्म, कमंडलू, त्रिशूल और सर्प का स्‍पर्श हुआ । आंखों की पट्टी खोलते है तो पुनः पांडुरंग विठ्ठल के दर्शन और पट्टी बांधे तो शिवजी का स्‍पर्श ! देखते देखते एकाएक उन्‍हें साक्षात्‍कार हो गया की हरि-हर तो एक ही है । जैसे सोने के विविध अलंकार बनाते है, उनके विविध नाम है; परन्‍तु सोना तो एक ही होता है, उसी प्रकार भगवान भी एक ही होते है । उसी समय नरहरी सुनार जी ने भगवान विठ्ठल के चरण पकड लिए । उनका समस्‍त अहंकार चूरचूर हो गया । उन्‍हें भगवान शिवजी में श्री विठ्ठल और श्री विठ्ठल में शिवजी के दर्शन होने लगे । नरहरी सुनार जी ने भगवान से क्षमायाचना करते हुए कहां, ‘‘हे भगवान, मेरे चित्त का अंधकार आपकी कृपा से सदा के लिए दूर हो गया है ।’’ आगे चलकर नरहरी सुनार जी संत बन गए ।

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