गुरु का कार्य है शिष्य को उसका वास्तविक स्वरूप दिखाना !

बकरियों के एक झुंडपर एक बाघिन ने छलांग लगाई । वह बाघिन गर्भवती थी । कूदते ही वह प्रसूत हो गई तथा कुछ समय पश्‍चात उसकी मृत्यु हो गई । उसका बच्चा बकरियों के झुंड में पलने-बढने लगा । बकरियों के साथ वह भी चारा खाना सीख गया । बकरियां जिस प्रकार ‘बें…बें’ करती थी । उसी प्रकार वह भी करने लगा । धीरे-धीरे वह बच्चा बडा हो गया । एक दिन बकरियों के झुंडपर एक बाघने आक्रमण किया । झुंड में चारा खानेवाले बाघ को देखकर वह दंग रह गया । उसने दौडकर चारा खानेवाले बाघ को पकड लिया । वह ‘बें….बें’ चिल्लाने लगा । वनका बाघ उसे घसीटकर, उसपर चिल्लाते हुए उसे तालाब के पास ले गया । तब वह उसे बोला, ‘‘देखो, जरा पानी में अपनी परछाई देखो । पानी में तुम्हारा मुख दिख रहा है । ध्यान से देखना, तुम एकदम मेरे जैसे दिख रहे हो और यह थोडासा मांस खाओ ।’’ ऐसा कहकर वनके बाघने उसे बलपूर्वक मांस खिलाया । प्रथमतः तो वह चारा खानेवाला बाघ मांस खाने के लिए सिद्ध नहीं हुआ । वह बार-बार ‘बें…बें’ चिल्ला रहा था । परंतु रक्त का स्वाद मुंह में लगते ही वह आनंद से मांस खाने लगा । तब वन के बाघ ने उसे कहा , ‘‘समझ गए न ? जो मैं हूं वही तुम हो । अब मेरे साथ वन में चलो !’

तात्पर्य : गुरु की कृपा होनेपर किसी का भय नहीं रहता । आप कौन हैं और आपका स्वरूप क्या है, यह सर्व आपको गुरु दिखाएंगे ।

– (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (वर्ष १९९०)

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