प्राचीन काल के भारत का शिक्षा वैभव !

‘भारत में अंग्रेजों का शासन स्थापित करने के उद्देश्य से सर थॉमस मूनरो नामक अंग्रेज अधिकारी ने तत्कालिन भारतीय शिक्षाप्रणाली का गहन सर्वेक्षण किया । इस सर्वेक्षण से प्राचीन काल के भारतीय शिक्षाप्रणाली का वैभव स्पष्ट होता है ।

१. सर थॉमस का सर्वेक्षण

१ अ. बंगाल और बिहार के १ लक्ष ५० सहस्र ७४८ गावों में पाठशालाओं की संख्या : १ लक्ष

१ आ. वर्ष १८२६ तक मद्रास क्षेत्र में २१ जनपदों में उच्च शिक्षासंस्थाओं की संख्या : १०६४

१ इ. बंगाल के प्रत्येक जनपद में स्थित उच्च शिक्षासंस्था : औसतन १००

मुंबई और पंजाब प्रान्तों के सर्वेक्षण के निष्कर्ष भी इसीप्रकार थे ।

२. प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएं !

२ अ. समाज की आवश्यकता के अनुसार आदर्श नागरिक सिद्ध करना : प्राचीन काल में शिक्षा के लिए जो गुरुपरम्परा रहती थी वह अतिप्राचीन और श्रेष्ठ परम्परा होने के कारण शिक्षा का स्तर उच्च श्रेणी का था । समाज की आवश्यकता के अनुसार आदर्श नागरिक सिद्ध करना, यह शिक्षासंस्थाओं का उद्देश रहता था; इसलिए शिक्षा समाप्त होने के उपरान्त शिक्षासंस्थाएं पदवीदान समारोह आयोजन करती थी और विद्यार्थियों की शारीरिक एवं मानसिक योग्यता को देखकर उनका वर्णव्यवसाय निश्चित करती थी । परम्परागत व्यवसाय की शिक्षा परिवार में ही प्राप्त होती थी ।

२ आ. सर्वांगीण व्यावहारिक ज्ञान : प्राचीन काल में पाठशालाओं में धर्मशास्त्र, विधि, ज्योतिषशास्त्र जैसा सर्वांगीण व्यावहारिक ज्ञान (Applied / Practical Knowledge) दिया जाता था । छात्रों की शैक्षिक पात्रता के साथ ही शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उनमें एक आदर्श नागरिक बनने की क्षमता विकसित करनेपर विशेष ध्यान दिया जाता था । इसके लिए छात्रों के निवासव्यवस्था भी पाठशालाओं में ही की जाती थी ।

२ इ. समाजरूपी विराट पुरुष की सेवा करने का माध्यम है, शिक्षा : शिक्षा उदरभरण अथवा अर्थार्जन करने का माध्यम नहीं था । प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ समाजरूपी विराट पुरुष की सेवा करता था; इसलिए किसी भी व्यवसाय में भ्रष्टाचार, संग्रह करना (जमाखोरी ), मिलावट आदि का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था  ।

२ ई. शिक्षा को आर्थिक सहायता करनेवाले राजा तथा अपनी पात्रता सिद्ध करनेवाले छात्र : वैदिक कालखंड से राजा-महाराजा और शीर्ष स्थानपर विराजित महाजन स्वयं जागृत तथा सक्रिय रहकर शिक्षासंस्थाओं का आर्थिक व्यय उठाते थे । किसी शिक्षा संस्था को आर्थिक सहायता करना, यह ऋषिऋण से मुक्त होने का पुण्यकर्म माना जाता था । इसलिए शिक्षा संस्थाएं राजा की अर्थसहायता से चलती थी; परन्तु राजाश्रित नहीं थी ।’

सन्दर्भ : ‘मासिक गीता स्वाध्याय’, जनवरी २०११

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