ब्रिटीशपूर्व काल में भारत ज्ञानार्जन के, अर्थात शिक्षा के शिखर पर होना

बच्चो, इस अभिमानास्पद वास्तविकता को समझ लें !

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‘भारत की ब्रिटीशपूर्व काल की शिक्षा उत्कर्ष साधनेवाली थी । इस सन्दर्भ में यूरोपियन यात्रियों एवं शासनकर्ताओं के निःसन्दिग्ध साक्ष्य उपलब्ध हैं । रामस्वरूप ने उनके Education System during Pre-BritishPeriod इस प्रबन्ध में इस विषय में चर्चा की है ।’

अ. ‘ब्रिटीशपूर्व काल का भारत ज्ञानार्जन के, अर्थात शिक्षा के शिखर पर था । आशिया और यूरोप में अग्रणी था । उस काल में भारत में कोई निरक्षर नहीं था । इसका प्रमाण है कि, मेगॉस्थेनिस (इ.स. पूर्व. ३०२) नामक भारत में आया यात्री यहां की शिक्षा से विलक्षण प्रभावित हुआ । मेगॉस्थेनिस चंद्रगुप्त की राजसभा में था । वह भारत में उपलब्ध ज्ञान और शिक्षा की विलक्षण प्रशंसा करता है ।

आ. ब्रिगेडियर जनरल एलेक्जांडर वॉकर इ.स. १७८० से १८१० तक हिन्दुस्थान में नौकरी के लिए आया था । वह कहता है, ‘शिक्षा के प्रति प्रखर भान हिन्दुओं जैसा विश्व के किसी भी लोगों को नहीं है ।’

इ. शिक्षाव्यवस्था का ऐसा निःसन्दिग्ध वर्णन करनेवाले उस समय के यूरोपियन करते हैं कि. सार्वत्रिक शिक्षा की पूरे भारत में सुव्यवस्था थी । इ.स. १८२० मे Abbe J. A. Dubois कहता है, ‘ऐसा गांव मिलना कठिन है कि, जहां पाठशालाएं नहीं थी । विद्यार्थियों की आवश्यकताएं पूरी करनेवाली, उनकी योग्यता के अनुकूल ऐसी शिक्षा होती है ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, मार्च २००९)

अंग्रेज भारत में आनेपूर्व उनके देश की अपेक्षा भारत में साक्षरता थी !

‘अंग्रेज भारत में आनेपूर्व भारत में ७ लाख ३२ सहस्र गुरुकुल थे । ९७ प्रतिशत लोग सुशिक्षित थे । उस समय पाठ्यक्रम में १८ विषय थे, जिसमें आयुर्वेद, योग, स्वास्थ्य, गणित, स्थापत्य जैसे अनेक प्रकार के विषय समाविष्ट थे ।

– अनंत गाडगीळ (लोकजागर, अक्टूबर २००९)

भारत की महान संस्कृति का आचरण करनेवाले पाश्चात्त्य !

पाश्चात्त्य समाज हिन्दू धर्मद्वारा प्रदान की भारतीय संस्कृति, संस्कृत भाषा, अध्यात्म, श्रीमद् भगवद्गीता आदि अनेक बातों की ओर वैश्विक देन के रूप में देखता है । ‘युनेस्को’ नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाने वैश्विक पाठ्यक्रम में हिन्दू धर्म के सिद्धान्त दर्शित करनेवाले काव्य स्वीकृत किए हैं । ‘युनेस्को’ने कहा है कि, ये काव्य विद्यार्थियों मेें नैतिक मूल्यों का संवर्धन करनेवाले, साथ ही युवापीढी के कुसंस्कार, क्रुरता और दुर्जनता नष्ट करने के लिए सहायक होंगे । अमेरिका और यूरोपिय देश की शिक्षाव्यवस्था में संस्कृत भाषा एवं रामकृष्णादि अवतारों की कथाओं के पाठ अन्तर्भूत हैं । अमेरिका के विश्वविद्यलयों में भगवद्गीता का अध्ययन अनिवार्य किया गया है ।

भारतीय शिक्षाप्रणाली की इस शक्ति को समझ लें !

‘विद्यार्थियों को व्रतस्थ होना ही चाहिए । भारतीय शिक्षा-वैज्ञानिकों का वैसा  आग्रह है । आहार, केशभूषा, विहारादि बातों में आग्रहपूर्वक व्रतस्थ रहना ही चाहिए । संयम रखना ही चाहिए । साथ ही भारतीय अध्यापन संस्थाओं के कठोर नियम थे । वहां मनमानी नहीं थी । जहां मनमानी होगी, वहां विद्या असम्भव और जहां विद्या, वहां मनमानी असम्भव !

स्वामी रामतीर्थ जैसा दृढ आत्मविश्वास कितने आधुनिकों में है ?

‘स्वामी रामतीर्थ अत्यन्त बुद्धिमान विद्यार्थी थे । उनका प्रिय विषय था, गणित । सिखते समय उनका नाम तीर्थराम था । एक बार परीक्षा में १३ प्रश्न दिए थे और उनमें से केवल ९ का उत्तर देना था । तीर्थराम ने १३ में से १३ प्रश्नों के उत्तर लिखकर उसके नीचे टिप्पणी लिखी । ‘१३ ही उत्तर अचूक हैं । कोई भी ९ जांचें ।’ ऐसा था उनका दृढ आत्मविश्वास ।’

हमें जॉर्ज वॉशिंग्टन की आवश्यकता ही क्या है ?

‘हमारे हिन्दू बच्चे सत्यवचनी युधिष्ठिर और श्रीराम के चरित्र से सत्य की महिमा जानते हैं । सत्य बोलना सिखते हैं । अनृत का (असत्य का) तिरस्कार करते हैं । हमें जॉर्ज वॉशिंग्टन की क्या आवश्यकता ?’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिन्तन, १.१०.२००९)

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