आनन्ददायी गुरुकुल शिक्षणपद्धति भारत में लाने हेतु कटिबद्ध हो जाए !

गुरुकुल पद्धति ही आवश्यक

‘पैसा देकर उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थी शिक्षा के उपरान्त समाज के नागरिक बनते हैं और अपना व्यवसाय सच्चाई से नहीं करते । केवल अर्थार्जन का ही विचार प्रधानरूप से कर कार्य करते हैं । उसमें उन्हें आत्मीयता नहीं रहती, अपितु अपना स्वार्थ साधकर ‘हम हमारे परिवार के साथ कैसे ऐश्वर्य में, आराम में जी सकते हैं’, यही उनके जीवन का उद्देश्य होता है । कोई छात्र राजनीति में गया, तो वहां भी समाज कल्याण की उपेक्षा कर भ्रष्टाचारद्वारा संपत्ति इकट्ठा करता है । इसमें सामान्य जनता भी झुलस जाती है ।

इसीलिए पूर्वकाल में ऋषीमुनियों ने अपने आश्रम में विद्यार्थियों को सभी दृष्टि से सामर्थ्यवान करनेवाली शिक्षा प्रदान की । इसलिए १२ वर्षों के उपरान्त आश्रम से बाहर निकलनेपर वह आत्माविश्वास के साथ जीवन का सामना करता था । जीवन एक कला है । जीवन सर्वथा स्वयम्पूर्ण रीति से आनन्द, सामथ्र्य एवं स्वावलम्बित्व के साथ कैसे जीएं, यह उसे उस आश्रम में बताया जाता था, इतना ही नहीं; अपितु वैसा पाठ और प्रयोग उससे करा लिया जाता था ।’

प.पू. परशराम माधव पाण्डे (श्री गणेश-अध्यात्म दर्शन, पृष्ठ १०२

गुरुकुल शिक्षणपद्धति ही वास्तविक अर्थ से प्रत्येक व्यक्ति का और देश का विकास  करवाएगी

भारत में पूर्वकाल से चली आ रही गुरुकुलपद्धतिद्वारा विद्यादान किया जाता था । ब्रिटिश शासनकाल में भारतियों को आंग्लप्रेमी बनाने के उद्देश्य से लॉर्ड मेकॉले ने हेतुपूर्वक ऐसी ही निठल्ली शिक्षापद्धति उस समय आरम्भ की । स्वतन्त्रता के पश्चात भी वही शिक्षापद्धति आजतक जारी रखी है । आज की शिक्षाद्वारा काली चमडी के केवल बाबू लोग तैयार हो रहे हैं । स्नातक युवकों को उनके द्वारा प्राप्त किए ज्ञान का व्यवहार में केवल पांच प्रतिशत ही उपयोग होता है । इसलिए वे तुरन्त स्वतन्त्ररूप से व्यवसाय नहीं कर पाते हैं । इसके फलस्वरूप वे विफल हो जाते हैं और इसका देश के विकासपर भी अनिष्ट प्रभाव होता है । यदि गुरुकुलपद्धतिद्वारा प्रत्येक की गुणवत्तानुसार व्यवसायपर आधारित शिक्षा प्रारम्भ से दी जाएगी, तो युवक व्यवसाय उत्तम प्रकार से कर पाएंगे और देश का विकास भी योग्य प्रकार से होगा; इसलिए गुरुकुल शिक्षा पद्धति का नए से प्रारम्भ किया जाना चाहिए ।

संदर्भ – संस्कृति दर्शन : वैद्य सुविनय दामले, जनपद सिन्धुदुर्ग, महाराष्ट्र.

पुनःश्च हरिॐ

‘पाश्चिमात्यों के प्रभाव का परिणाम देखते हुए पुनः गुरुकुल और ‘राष्ट्रीय पाठशालाएं’ स्थापित हो रही हैं । वे यदि पूर्वकाल की पद्धति आचरण में लाना आरम्भ करेंगे, तो विश्व में शान्ति प्रस्थापित कर, समाज को उन्नत बनाकर, सम्पूर्ण सृष्टि को उसका ऐश्वर्य प्राप्त करवाने का सामथ्र्य निर्माण करनेवाले खरे ज्ञानी तैयार होंगे, इसमें सन्देह नहीं ।’

विज्ञान चैतन्यरहित होने से वह विद्यार्थियों को काम निपटाने को सिखाता है । निपटा देने की यह वृत्ति कंटाला लाती है, अतः ऐसी पढाई से विद्यार्थियोंपर तनाव आता है  । किन्तु अध्यात्म नित्यनूतन और चैतन्यमय होने से वह भक्तों को, श्रद्धालुओं को प्रतिदिन भिन्न प्रकार का आनन्द प्रदान करता है । वाचन में अधिकाधिक गहराई में जानेपर आनन्द द्विगुणित होता है और इससे हमें सन्तुष्टि मिलती है । इसीलिए ‘सन्त-चरित्र पढते समय उसका बहुत कंटाला आया है, ऐसा लग रहा है कि यह कब पढकर समाप्त होगा’ , ऐसे वाक्य किसी के भी मुख से बाहर निकलते हुए नहीं दिखाई देते । इसका कारण है, सन्त-चरित्र में विद्यमान चैतन्य और सन्तों की प्रत्यक्ष अनुभूतियुक्त वाणी ! पूर्वकाल में गुरुकुल में हिन्दू धर्मसम्बन्धी आचार और विचार पद्धतियों को, हिन्दू धर्मान्तर्गत शास्त्रशुद्ध प्रमाणों को आत्यन्तिक महत्त्व देकर देवताओं और ऋषियों की कृपा से अध्ययन और अध्यापन किया जाता था, जिससे वह वातावरण ही चैतन्य से आनन्दित हुआ होता था ।

तो फिर चले, पुनः एक बार ‘आनन्ददायी गुरुकुलरूपी धर्मशिक्षापद्धति’ भारत में लाने के लिए कटिबद्ध  हो जाएंगे और न्यूनतम आगामी पीढियों को तो चैतन्य का तथा इससे मिलनेवाली ईश्वरीय कृपा का आनन्द देने के लिए सिद्ध हो जाएंगे !

– पू. (श्रीमती) अंजली गाडगीळ, रामनाथी, गोवा. (चैत्र पूर्णिमा, कलियुग वर्ष ५११३ (६.४.२०१२)

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