समर्थ रामदास स्वामीजी की साधना

बच्चो, राष्ट्रगुरु समर्थ रामदास स्वामी ने दिया ‘जय जय रघुवीर समर्थ’ यह मंत्रजाप आप जानते ही होंगे । कठोर साधना के कारण लडकपन में ही उन्हें प्रभु श्रीराम के दर्शन हुए ।

नारायण अर्थात् अपने समर्थ रामदास स्वामी लडकपन में अन्य बच्चों जैसे नटखट थे । अत्यंत बुदि्धमान; किंतु नटखट नारायण बडे देवभक्त थे । बचपन से उनका ध्यान दूसरी बातों से देवभक्ती की ओर अधिक था । वह श्रीरामजी की बहुत भक्ति करते थे । उनका अधिकाधिक समय भगवान के चिंतन में ही जाता था । चिंतन के उपरांत उनकी समझ में आया कि, सत्य ज्ञान होने हेतु गुरू से उपदेश प्राप्त होना चाहिए । तब नारायण ने अपने बडे भाई गंगाधरजी से उपदेश देने की विनती की । नारायणजी की विनती सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘अभी तुम छोटे हो । तुम्हारी खेलने की आयु है, अत: थोडा बडा होनेपर उपदेश दूंगा” इस वक्तव्य से वे निराश हुए तथा गांव के हनुमानजी के मंदिर में एक कोने में जाकर बैठ गए; जबतक हनुमानजी गुरुपदेश नहीं देते, तबतक अपनी जगह से उठूंगा नहीं, ऐसा निश्चय कर ध्यान करने बैठ गए । तब साक्षात प्रभुश्रीरामचंद्रजी ने प्रकट होकर नारायणजी को ‘श्रीराम जय राम जय जय राम ।’ मंत्र का उपदेश दिया । गुरू का उपदेश प्राप्त होने से नारायण आनंदित हुए तथा अपना अधिकांश समय ईश्वर के चिंतन में बिताने लगे ।

भगवान श्रीराम के प्रति उनकी लगन उनकी मां जानती थी । श्रीराम की भक्ति में संपूर्ण एकरूप हुए नारायणजी का मन गृहस्थी में लगे, इस हेतु उनका विवाह करना निश्चित किया । उस समय उनकी आयु थी केवल बारह वर्ष । मां ने कहा था कि, ‘शुभमंगल सावधान’ होने तक मेरी बात मान । मां की आज्ञा के कारण बाल नारायण विवाह हेतु मंडप में आकर खडे हुए । मन में बसी भगवान श्रीराम की मूर्ति स्वस्थ बैठने नहीं दे रही थी । अक्षता सिरपर पडने के समय जब पंडित ने ‘शुभ मंगल सावधान’ का घोष किया, उसी क्षण उन्होंने विवाह मंडप से छलांग लगाई । दौडते दौडते वह नासिक की पंचवटी पहुंचे । वहां की भगवान श्रीराम की मूर्ति का बडे भाव से दर्शन किया तथा वहां से निकट दो मील की दूरीपर स्थित टाकळी गांव गए । आगे जाकर उन्होंने गोदावरी एवं नंदिनी नदीयों के संगमस्थान पर रहकर बारह वर्ष तपश्चर्या की । सूर्योदय से सूर्य माथेपरआने तक गोदामाई के पानी में कमरतक खडे रहकर प्रभू श्रीराम का त्रयोदशाक्षरी जाप का तेरह कोटि का संकल्प पूरा किया । छोटे नारायण अब नारायण न रहकर ईश्वर जैसा तेजस्वी,दैदीप्यमान पुरुष बन गया था । छातीतक दाढी, पावोंमें खडाऊं, भगवे वस्त्र एवं हर श्वास के साथ श्रीराम का नाम । सब लोग उन्हें समर्थ रामदास स्वामी के नाम से जानने लगे थे । दो तप साधना करने से साक्षात प्रभु श्रीराम का मार्गदर्शन उन्हें पगपग पर होता था । आगे प्रभु श्रीराम की आज्ञा से समर्थ रामदास्वामीजी ने श्रीराम उपासना संप्रदाय आरंभ किया, वही है ‘समर्थ संप्रदाय’ । उन्होंने कहा था, ‘ऐसा काम करो जिससे मरकर भी अमर हो जाओ ।’ अपना कथन उन्होंने सच कर दिखाया । समर्थ रामदास स्वामी भले ही देहरूप से हमारे बीच नहीं हैं, किंतु अपने मार्गदर्शन से वे अजर अमर हो गए । समर्थ रामदास स्वामी ने‘दासबोध’ नाम का ग्रंथ लिखा । उसमें उन्होंने सबने कैसे आचरण करना चाहिए, ईश्वर भक्ति अर्थात साधना कैसे करें, यह बताया है ।

बच्चो, साधना का अर्थ आप लोग समझ ही गए होंगे । इस कलियुग में सीधी साधी साधना नामसाधना बताई गई है । हरएक अपनी कुलदेवता का नामस्मरण करें ।

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