त्याग से ही ईश्वरप्राप्ति संभव !

बालमित्रो, भगवान विट्ठलपर तुकाराम महाराज की अगाध श्रद्धा थी । इसलिए वे सभी बातों का बहुत सहजता से त्याग कर पाए । तुकाराम महाराज की महानता ज्ञात होनेपर लोग उनका सम्मान करने लगे, तो वे दूर जंगल में जाकर एकांत में ईशचिंतन करने लगे । एक बार दो माहतक वे घर गए ही नहीं थे । एक दिन उनकी पत्नी नदी से पानी ला रही थीं, उस समय मार्ग में उन्हें तुकाराम महाराज मिले । उन्होंने उन्हें मार्ग में ही रोककर पूछा, ‘‘आप घर नहीं आते । हम क्या करें ?” तब तुकाराम बोले, ‘‘पांडुरंग ही मेरे पिता एवं रुक्मिणी ही मेरी माता हैं । तुम भी उनके चरण पकड लो, तो वे तुम्हें भी भोजन-वस्त्र देंगे ।” तब उन्होंने कहा, ‘‘मैं हरिचरणों का स्मरण करुंगी; परंतु आप घरपर बैठें ।” तुकाराम महाराज बोले, ‘‘तुम वैसा वचन दो, तो मैं घर आता हूं ।” उन्होंने वैसा वचन दिया और वे दोनों घर आए । तुकाराम महाराज घर आए उस दिन एकादशी थी । तुलसी वृंदावन के पास बैठकर उन्होंने अपनी पत्नी को उपदेश दिया । उस उपदेश से वह प्रभावित हुर्इं । उन्होंने दूसरे दिन सूर्योदयपर स्नान कर ईश्वर की पूजा की तथा ब्राह्मणों को बुलाकर संपूर्ण घर लुटा दिया । परंतु दोपहर के समय घर में भोजन नहीं, यह देखकर वह विचारमग्न हो गर्इं । उसके पहले दिन एकादशी का व्रत होने से वह तथा बच्चे भूख से व्याकूल हो गए ।

जगत्जननी उस संकट में एक महारानी का रूप लेकर तुकाराम महाराज का सत्व देखने आर्इं । वह बोलीं, ‘‘आपने संपूर्ण घर ब्राह्मणोंपर लुटाया है, ऐसा सुना है, कुछ शेष हो तो मुझे दें ।” यह सुनकर घर में जो एक धोती सूख रही थी, वह भी तुकाराम महाराज ने उन्हें दे दी । जब यह बात उनकी पत्नी को ज्ञात हुई, तो उन्हें क्रोध आया । वह कहने लगीं, ‘‘दो माह के उपरांत कल ही उन्हें समझाकर लाई हूं । उन्होंने उपदेश देकर मुझे कैसे मोहित किया देखो । ब्राह्मणोंपर सबकुछ लुटा दिया । बच्चे भूख से व्याकुल हैं ।” वह क्रोधित हुर्इं तथा जिन चरणों के चिंतन से ऐसा अनर्थ हुआ, वे चरण फोडने के लिए वह एक पत्थर लेकर जाने लगीं । तुकाराम महाराज के पूछनेपर उसने सत्य बताया । उसे सुनकर तुकोबाने कहा,‘‘वह पत्थर मेरे मस्तकपर मारो”। परंतु वह पत्थर लेकर देवालय की ओर जाने लगीं । तुकाराम महाराज उनके पीछे-पीछे जाने लगे ।

उनके पत्थर लेकर देवालय में आते ही रुक्मिणी ने द्वार बंद किए तथा तुकोबा बाहर रह गए । तुकाराम महाराज की पत्नी पांडुरंग के चरणोंपर पत्थर मारने ही वाली थीं कि रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड लिया तथा हमने कौनसा अपराध किया है, ऐसा पूछा । तब वह बोलीं, ‘‘घर में बच्चे भूख के कारण बिलख रहे हैं । इन चरणों ने हमारा घात किया है; इसलिए मैं क्रोध में यह चरण फोड रही हूं । रुक्मिणी ने उन्हें समझाया, ‘‘तुम शांत बैठो । तुम्हें संसार में जिस-जिस वस्तु की न्यूनता लगे वह मैं तुम्हें दूंगी ।” रुक्मिणी ने उसे धोती, चोली, मुहरें (अशर्फी) देकर शांत किया । तब पत्थर फैंककर उन्होंने जगत्जननी के चरण पकडे तथा आनंदित हो घर गर्इं ।

इतना उपदेश देनेपर भी पत्नी उतावली होकर रुक्मिणी से मुहरें (अशर्फी) लेकर आर्इं यह देखकर तुकाराम महाराज को बहुत बुरा लगा । उन्होंने उनसे कहा, ‘‘तुमने परमार्थ का अवसर खो दिया । ऋदि्ध-सिदि्ध, संपत्ति इन सभी का त्याग करने से ही ईश्वरप्राप्ति होती है ।” उसके पश्चात तुकाराम महाराज ने वे सभी मुहरें (अशर्फी) निर्धनों में बांटदीं ।

बच्चो, ईश्वरपर दृढ श्रद्धा हो, तो ही हम त्याग कर सकते हैं । हमें सबकुछ ईश्वर की कृपा से ही मिलता है; परंतु आपकी भक्ति न होने के कारण हमें समझ नहीं आता । उसके लिए नामजप करना आवश्यक है ।

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