श्री गाडगे महाराज (इ.स. १८७६-१९५६)

श्री डेबूजी झिंगराजी उर्फ गाडगे महाराजजी का जन्म विदर्भ के कोते नामक गांव में हुआ था । वे धोबी समाज के थे । गाडगे महाराजने अपनी आयु के आठवें वर्ष से अपने घर की विपन्न/संकटग्रस्त परिस्थिति का, अपने समाज के पिछडेपन का, समाज के अनपढ होने का निरीक्षण किया । महाराजजीने स्वयं के अपरिमित परिश्रम से अपने मामा की खेती को लहलहाकर अज्ञान, दरिद्रता, अंधश्रद्धावाले अपने समाज के समक्ष अपने परिश्रम का आदर्श रखा ।

गाडगे महाराज कठोर परिश्रम कर जीवन व्यतीत कर रहे थे । एक दिन एक जटाधारी तेजस्वी योगीने खेत में आकर उन्हें प्रसाद दिया । रातभर श्मशान में बिठाकर गाडगे महाराज को उन्होंने अपनी पारमार्थिक साधना दी । गाडगे महाराज को उन जटाधारी योगी सत्पुरुषने देवीदास कहकर संबोधित किया ।

एक दिन रात्रि के समय जब सभी नींद में थे, वे सर्वस्व का त्याग कर चले गए । गाडगे महाराजजीने बारह वर्ष अज्ञातवास में व्यतीत किए । उसके पश्चात अपना तन, मन, धन जनसेवा में लगाने के लिए जनकल्याण हेतु उन्होंने कठोर तप किया । उस काल में गाडगे महाराजजीने कदान्न का सेवन कर चिथडे ओढकर, मस्तकपर मटका धारण कर देहश्रम की परिसीमा की । लोग आदरपूर्वक उन्हें गाडगे महाराज के नाम से पुकारने लगे ।

जनजीवन तेज से चमकने के लिए हाथ में झाडू लेकर गांव के रास्ते झाडते हुए वे संपूर्ण महाराष्ट्र में घूमे । विवेक की झाडू से गांवगांव घूमकर उन्होंने लोगों के मन स्वच्छ किए । गांवगांव, शहरशहर जाकर कीर्तन किए । गाडगे महाराजजीने लागों को शिक्षा का महत्व समझाया । साक्षरता का प्रचार किया । गाडगे महाराज अर्थात जनजागृति करनेवाले एक चलता-फिरता विद्यापीठ थे । गाडगेमहाराज अधिक पढेलिखे नहीं थे; परंतु संतों के अभंग उन्हें मुखाग्र थे । ‘गोपाला गोपाला देवकी नंदन गोपाला’ ऐसा गजर कर तुरंत हरिपाठ गाते । गाडगे महाराजजी का कीर्तन सुनने के लिए लोग दूरदूर से आते थे । गाडगे महाराजजीने पंढरपुर, देहू, आलंदी, नासिक, मुंबई में धर्मशालाएं बनवार्इं । जनकल्याण के अनेक कार्य उन्होंने यशस्वी रूप से किए । उन्होंनें अपना जीवन वैरागी एवं धर्मशील वृत्ति से व्यतीत किया । उनके यहां जाति, धर्म तथा वर्ण में भेद नहीं था । वे समानता के पुरस्कर्ता थे । उनके अंतःकरण में जनकल्याण की अटूट भावना थी । लोगोंने उन्हें संत मानकर उनकी भक्ति की । सामान्य लोगों के लिए उन्होंने बहुत कार्य किया । अंत समय अमरावती में उन्होंने अपनी देह का त्याग किया ।

महाराजजीने विश्व-कल्याण हेतु अपने जीवन में बहुत कष्ट उठाएं । अपने कर्तृत्व से वे वंदनीय बने ।

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