धर्मसम्राट करपात्र स्‍वामीजी !

वर्ष १९०७ में श्रावण शुक्‍ल पक्ष द्वितीया को उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ जिले के भटनी गांव में करपात्र स्‍वामीजी का जन्‍म हुआ था । उनका नाम हरनारायण रखा गया । १९ वर्ष की आयु में उन्‍होंने अपना घर छोड दिया था । उसके बाद वह गंगातट पर निवास करने लगे । करपात्र स्‍वामीजी ने विश्‍वेश्‍वराश्रम के निकट वेदशास्‍त्रों का अध्‍ययन किया । उन्‍होंने हिमालय में निवास कर, तपस्‍या की । समाधी अवस्‍था उन्‍हें ईश्‍वर से धर्म की संस्‍थापना का कार्य करने का दैवी आदेश मिला । २४ वर्ष की आयु में वह काशी गए । वहां उन्‍होंने श्रीब्रह्मानंद सरस्‍वती के पास जाकर संन्‍यास ग्रहण किया और अब उन्‍हें हरिहरानंद सरस्‍वती के नाम से जाना जाने लगा ।

उन्‍होंने हिन्‍दू धर्म के लिए बहुत महान कार्य किया है । वर्ष १९४६ (उन्‍नीस सौ छयालिस) में बंगाल में हिन्‍दुओं का सामूहिक हत्‍याकांड हुआ था । वहां भयंकर नरसंहार हुआ था । अनेक हिन्‍दुआें का बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन किया गया । इस बात की जानकारी मिलते ही करपात्र स्‍वामीजी तुरंत बंगाल पहुंचे । उन्‍होंने वहां हिन्‍दुओं को धीरज बंधाया । हिन्‍दू समाज को धैर्य देकर घोषणा की, ‘कि जो भी संकीर्तन कर रामनाम का उच्‍चारण करेगा, वह विशुद्ध हिन्‍दू ही बना रहेगा’ । इसप्रकार बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन नहीं होगा, इसकी निश्‍चिती की । करपात्र स्‍वामीजी ने ३ सहस्र बेघर हुए हिन्‍दू परिवारों की पुनर्स्‍थापना की ।

करपात्र स्‍वामीजी ने हिन्‍दू कोड बिल का कडा विरोध किया था । उसके लिए उन्‍होंने देशभर दौरा किया । हिन्‍दू कोड बिल के विरोध में घमासान आंदोलन में स्‍वामीजी के२ करोड से अधिक रुपए खर्च हो गए । स्‍वामीजी ने ‘हिन्‍दू कोड बिल प्रमाण की कसौटी पर’ नामक ग्रंथ भी प्रकाशित किया । उन्‍होंने संपूर्ण भारत में गोवध बंदी के लिए भी आंदोलन किए । स्‍वामीजी ने राष्ट्र और धर्मजागृति के लिए दैवी कार्य किया था ।

वर्ष १९३९ में स्‍वामीजी ने काशी में ‘सन्‍मार्ग’ नाम का दैनिक और ‘सिद्धांत’ नाम का साप्‍ताहिक समाचारपत्र आरंभ किए ।
उसके बाद उन्‍होंने धर्मसंघ की स्‍थापना कर धर्मयात्रा आरंभ की । सरकार की धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा से लोगों को मुक्‍त करने के लिए इस संघ की स्‍थापना की गई थी । अपने हिन्‍दू धर्म की रक्षा के लिए उन्‍होंने भारतभर पैदल यात्रा की । उन्‍होंने अनेक अधिवेशन, चर्चासत्र, वेदशाखा सम्‍मेलन, शास्‍त्रार्थ सभाएं इत्‍यादि लीं ।

१९ जनवरी १९४० को उन्‍होंने धर्मयुद्ध सत्‍याग्रह की घोषणा की । इसके लिए उन्‍हें ६ माह का कारावास भी भोगना पडा ।
स्‍वामीजी ने धर्मसंघ शिक्षा मंडल, काशी इस संस्‍था के माध्‍यम से काशी, विठूर, राजस्‍थान के चुरु, मुज्‍जफ्‍फरपुर, वृंदावन, बिहार, देहली, अमृतसर और लाहौर ऐसे ५० से भी अधिक स्‍थानों पर संस्‍कृत विद्यालय स्‍थापित किए । जो आज भी कार्यरत हैं ।
उन्‍होंने धर्मवीर दल और महिला संघ की भी स्‍थापना की । इसके साथ ही सभी वेदशाखा सम्‍मेलन, धार्मिक पत्रकार सम्‍मेलन, साधु-सम्‍मेलनों का भी भव्‍य आयोजन किया ।

वर्ष १९८० में स्‍वामीजी ने हरिद्वार में कुंभस्नान और धर्मप्रचार किया । उस समय वह ज्‍वरग्रस्‍त थे अर्थात उन्‍हें बुखार था । फिरभी उन्‍होंने संक्रांति का गंगास्नान किया । ७ फरवरी १९८२ (उन्‍नीस सौ बयासी) को करपात्र स्‍वामीजी ने गंगास्नान किया और उसके बाद काशी के केदार घाट पर अपने आश्रम में शिवऽ शिवऽऽ शिवऽऽऽ नामोच्‍चारण करते हुए देहत्‍याग किया ।

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