श्री संत चैतन्‍य महाप्रभु की श्रीकृष्‍णभक्‍ति ! 

श्री संत चैतन्‍य महाप्रभु

आज हम श्रीकृष्‍ण के भक्‍त श्री संत चैतन्‍य महाप्रभु इनकी अनन्‍य कृष्‍णभक्‍ति के बारे मे जानेंगे ।

बंगाल में गंगा नदी के तट पर नवद्वीप गांव है । उस गांव मे नीम के वृक्ष की पर्णकुटी में वर्ष १४८६ फाल्‍गुन शुक्‍ल पूर्णिमा को जगन्‍नाथ एवं शुचीदेवी को एक पुत्र हुआ । उसका नाम विश्‍वंभर रखा गया । मां उसे निमाई के नाम से पुकारती थी । वही थे चैतन्‍यप्रभु ।

निमाई (चैतन्‍य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्‍न थे । साथ ही, अत्‍यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे । बहुत कम आयु में ही निमाई न्‍याय व व्‍याकरण में पारंगत हो गए थे । इन्‍होंने कुछ समय तक नादिया में स्‍कूल स्‍थापित करके अध्‍यापन कार्य भी किया ।

एक दिन जब निमाई अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी भेंट ईश्‍वरपुरी नामक संत से हुई । उन्‍होंने निमाई से कृष्‍ण-कृष्‍ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्‍ण की भक्‍ति में लीन रहने लगे । भगवान श्रीकृष्‍ण के प्रति इनकी अनन्‍य निष्ठा व विश्‍वास के कारण इनके असंख्‍य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्‍यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्‍य बने । इन दोनों ने निमाई के भक्‍ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की।

उन्‍होंने अपने दोनों शिष्‍यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्‍च स्‍वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।

हरे-कृष्‍ण, हरे-कृष्‍ण, कृष्‍ण-कृष्‍ण, हरे-हरे ।
हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे ॥

विश्‍वंभर अर्थात निमाई ने पंडित गंगाराम के पास संस्‍कृत तथा न्‍यायशास्‍त्र का अध्‍ययन किया । उसके उपरांत उन्‍होंने स्‍वयं पाठशाला स्‍थापित की । विश्‍वंभर की गणना श्रेष्ठ पंडितों में होने लगी ।

निमाई अलौकिक तेजस्‍वी महापुरुष थे । विद्यासागर नामक पदवी उन्‍हें प्राप्‍त हुई थी । पंडित वल्लभाचार्य की सुविद्य कन्‍या लक्ष्मी से उनका विवाह हुआ । ज्‍येष्ठ पंडितोंसहित जब वे पूर्व बंगाल में गए थे । तब उनकी पत्नी की सर्पदंश से मृत्‍यु हो गई ।

मां के आग्रह के कारण विष्‍णुप्रिया नामक राजपंडित की कन्‍या के साथ उन्‍होंने दूसरा विवाह किया । उसी समय निमाई ने केशव पंडित का न्‍यायशास्‍त्र में पराभव कर ‘आचार्य’ की पदवी प्राप्‍त की । उन्‍होंने व्‍याकरण पर एक बडा ग्रंथ भी लिखा । साथही न्‍यायशास्‍त्रपर भी ग्रंथलेखन किया ।

निमाई की श्रीकृष्‍ण पर पूर्ण श्रद्धा थी । श्रीकृष्‍ण का भजन गाते नृत्‍य करते हुए वे भक्‍तिचिंतन में एकाग्र हो जाते थे ।

भक्‍तिसाधना में उनका वैराग्‍य बढता गया । उनके मन मे संन्‍यास लेने की प्रबल इच्‍छा उत्‍पन्‍न हुई । तब वे घर-संसार छोडकर कटवा ग्राम गये । वहां जाने पर उन्‍हें गुरु केशव भारती मिले ।

गुरु केशव भारती ने निमाई को संन्‍यास-दीक्षा देकर उनका नाम श्रीकृष्‍ण चैतन्‍य रखा । आगे उनका नाम ‘चैतन्‍य महाप्रभु’ यह प्रचलित हो गया । चैतन्‍य महाप्रभु सभी लोगों को बताते थे, ‘‘श्रीकृष्‍ण का नामस्‍मरण करिए । कृष्‍णभक्‍ति ही सच्‍चा परमार्थ है । श्रीकृष्‍ण का नाम ही सभी शास्‍त्रों का सार है ।’’

‘हरे कृष्‍ण । हरे कृष्‍ण । कृष्‍ण कृष्‍ण हरे हरे ।’ यह नामसंकीर्तन हमने सुना है । चैतन्‍य महाप्रभु का यह नामसंकीर्तन लोकप्रिय हो गया । उन्‍होंने कृष्‍णभक्‍ति का प्रसार कर सामान्‍य लोगों को जीवनमुक्‍ति का मार्ग दिखाया ।

एक बार चैतन्‍य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा के लिए निकले । कन्‍याकुमारी तक यात्रा होने पर वे जगन्‍नाथपुरी आए । वर्ष १५३३ (पंद्रह सौ तैतीस) में श्रीकृष्‍ण के भक्‍तिचिंतन में भक्‍तोंसहित नृत्‍य करते हुए सागर किनारे से जाते समय उन्‍हें दृष्टांत हुआ कि श्रीकृष्‍ण जलविहार कर रहे हैं । श्रीकृष्‍ण के दर्शन हेतु ‘हे प्रभु, हे कृष्‍ण !’ एैसे कहते हुए हाथ ऊंचाकर चैतन्‍य महाप्रभुजीने श्रीकृष्‍ण के नामजप के उल्लास में अपना देह सागर में त्‍याग दिया । उस समय एक बडी लहर आई और उसमें वे अदृश्‍य हो गए । उपरांत वे दिखे ही नहीं । आगे उनके शिष्‍यों ने चैतन्‍यभक्‍ति संप्रदाय का प्रसार किया । श्रीकृष्‍णभक्‍ति ही चैतन्‍य संप्रदाय की उपासना है ।

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