संत तुकाराम : भागवत धर्म मंदिर का कलश !

मराठी भक्ति परंपरा में अनन्य साधारण स्थान रखनेवाले संत तुकाराम महाराजने संसार के सर्व सुख-दुःखों का सामना साहस से कर अपनी वृत्ति विठ्ठल चरणों में स्थिर की । फाल्गुन वद्य दि्वतिया को संत तुकाराम सदेह वैकुंठ सिधारे । भागवत धर्म मंदिर का कलश अर्थात संत तुकाराम महाराज की जानकारी देनेवाला यह लेख ……..

बाल्यावस्था से सांसारिक जीवन तक –

संत तुकाराम महाराज का जन्म पुणे के निकट देहू गांव में हुआ था ।पिताजी बोल्होबा तथा मां कनकाई के सुपुत्र तुकाराम महाराज का उपनाम अंबिले था । उनके कुल के मूल पुरुष विश्वंभरबुवा महान विठ्ठलभक्त थे । उनके कुल में पंढरपुर की यात्रा करने की परंपरा थी । सावजी उनके बडे तथा कान्होबा छोटे भाई थे । उनकी बाल्यावस्था सुख में व्यतीत हुई थी । बडे भाई सावजी विरक्त वृत्ति के थे । इसलिए घर का पूर्ण उत्तरदायित्व तुकाराम महाराजपर था । पुणे के आप्पाजी गुळवे की कन्या जिजाई (आवडी)के साथ उनका विवाह हुआ था ।

तुकाराम महाराज को उनके सांसारिक जीवन में अनेक दुःखों का सामना करना पडा । १७-१८ वर्ष की आयु में उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई, तथा बडे भाई विरक्ति के कारण तीर्थयात्रापर चले गए । उन्हें भीषण अकाल का भी सामना करना पडा । अकाल में उनके बडे पुत्र की मृत्यु हो गई तथा घर का पशु धन नष्ट हो गया । घर दरिद्र में डूब गया ।

परमार्थ की ओर मार्गक्रमण

संत तुकाराम महाराज को उनके सद्गुरु बाबाजी चैतन्य ने स्वप्न में दृष्टांत देकर गुरुमंत्र दिया । पांडुरंग के प्रति निस्सिम भक्ती के कारण उनकी वृत्ति विठ्ठल चरणों में स्थिर होने लगी । आगे मोक्षप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा के कारण तुकाराम महाराजने देहू के निकट एक पर्वतपर एकांत में ईश्वर साक्षात्कार के लिए निर्वाण प्रारंभ किया । वहां पंद्रह दिन एकाग्रता से अखंड नामजप करनेपर उन्हें दिव्य अनुभव प्राप्त हुआ ।

सिद्धावस्था प्राप्त होने के पश्चात संत तुकाराम महाराजने ‘संसार सागर में डूबनेवाले ये लोग आंखों से देखे नहीं जाते’( ‘बुडती हे जन देखवेना डोळां । ) ऐसा दुःख व्यक्त कर लोगों को भक्तिमार्ग का उपदेश किया । वे सदैव पांडुरंग के भजन में मग्न रहते थे । पांडुरंग का नाम अमृत समान है , वही मेरा जीवन है, ऐसा वे कीर्तन के माध्यम से बताते थे । ‘धर्म की रक्षा हेतु हमे बहुत प्रयास करने हैं’, यह कहते हुए संत तुकाराम महाराजने वेद एवं धर्मशास्त्र का सदैव समर्थन किया । तुकाराम महाराजने संकट की खाई में गिरे हुए समाज को जागृतिका, प्रगति का मार्ग दिखाया । परतंत्रता में हीनदीन बने समाज को सात्त्विक पंथ दिखाया तथा भक्तियोग सन्मानित किया । हजारों भक्तों को एक छत्र के नीचे लाया । जैसे विचार वैसा ही आचार होना चाहिए, यह समाज को सिखाया ।

विरक्त संत तुकाराम महाराज

संत तुकाराम महाराज की कीर्ति छत्रपती शिवाजी महाराज के कानोंतक पहुंच गई थी । शिवाजी महाराजने तुकाराम महाराज को सम्मानित करने के लिए अबदगिरी, घोडे तथा अपार संपत्ति भेजी । विरक्त तुकाराम महाराज ने वह सर्व संपत्ति लौटाते हुए कहा कि ‘पांडुरंग के बिना हमें दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।’ उत्तरस्वरूप चौदह अभंगों की रचना भेजी ।

राष्ट्र रचना का कार्य

एक बार शिवाजी महाराज संत तुकाराम महाराज के कीर्तन में गए थे । उस समय मुघलोंने उस मंदिर को घेर लिया । उस समय शिवाजी महाराज के प्राणों की रक्षा के लिए तुकाराम महाराजने भगवान विट्ठल का मनःपूर्वक स्मरण किया । उनकी भक्ति से विट्ठल भगवानने शिवाजी का रूप लेकर सबके प्राणों की रक्षा की । शिवाजी महाराजद्वारा भविष्य में हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का कार्य होना था, यह जानकर तुकाराम महाराजने शिवाजी महाराज के प्राणों की रक्षा की । जिस प्रकार शिवाजी महाराज एवं उनकी भेंट हुई थी, उसी प्रकार रामदासस्वामी से भी उनकी भेंट हुई । इन तीनोंने एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना साकार करने हेतु बहुत प्रयास किए ।

अभंग रचना का महात्म्य

कवित्वका स्वप्नदृष्टांत होने के पश्चात उन्होंने अभंगों की रचना करना प्रारंभ किया । पूर्व से ही ध्यान, चिंतनमें जीवन व्यतीत होने के कारण उन्होंने ईश्वरीय अनुसंधान में ही अपनी मधुर वाणी में अनेक अभंगों की रचना की । अभंग तुकाराम महाराज की विशेषता थी । जिस प्रकार वामन के श्लोक, ज्ञानेश्वर महाराज की ओवी उसी प्रकार तुकाराम महाराज के अभंग । उनके अभंग भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं नीतिपर आधारित हैं ।

तुकाराम महाराजने संस्कृत के वेदों का अर्थ प्राकृत भाषा में बताया था । इसलिए वाघोली गांव के रामेश्वरशास्त्रीने तुकाराम महाराज के अभंगों की गाथा इंद्रायणी नदी में डुबोने का आदेश दिया । गाथा डुबोने के तेरह दिन पश्चात वह पुनः नदी से ऊपर आ गई । यह देखकर रामेश्वरशास्त्री को पश्चाताप हुआ तथा वे महाराज के शिष्य बन गए ।

आनंदमय संत तुकाराम महाराज का देहत्याग

संत तुकाराम महाराज के साधुत्व एवं कवित्व की कीर्ति सर्वत्र फैल गई । उस आनंदावस्था में उन्हें स्वयं के लिए कुछ भी प्राप्त नहीं करना था । वे तो केवल दूसरोंपर उपकार करने हेतु ही जीवित थे । ( ‘तुका म्हणे आता । उरलो उपकारापुरता ।’) अपनी भक्ति के बलपर महाराजने आकाश की ऊंचाई प्राप्त की तथा केवल ४१ वर्ष की आयु में सदेह वैकुंठगमन किया । फाल्गुन वद्य द्वितिया को तुकाराम महाराज का वैकुंठ गमन हुआ । यह दिन ‘तुकाराम बीज’ नाम से जाना जाता है ।

संकलक : बालसंस्कार गट

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