दत्त जयंती

भगवान दत्तात्रेय के समान प्रत्येक कृत्य से सीखने का निश्चय कर, दत्त जयंती मनाएं !

‘मार्गशीर्ष शुद्ध चतुर्दशी इस तिथि को दत्त जयंती है । छात्रो, भगवान दत्तात्रेय की उपासना करने का अर्थ उनके समान प्रत्येक मनुष्य एवं वस्तु से सदा सीखना तथा सीखने का निश्चय करना होता है ! दत्तजयंती के निमित्त हम भगवान दत्तात्रेय के विषय में शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करेंगे ।

१. दत्तात्रेय के नाम एवं उनका अर्थ

१ अ. दत्त : दत्त अर्थात ‘मैं आत्मा हूं’,इसकी अनुभूति देनेवाला ! प्रत्येक मनुष्य में आत्मा है इसलिए प्रत्येक मनुष्य चलता,बोलता एवं हंसता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘हमारे अंदर भगवान का ही वास है ।’ उनके बिना हम अपने अस्तिव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । हमें इसकी प्रचीति आनेपर ही, हम सभी से प्रेमपूर्वक आचरण कर सकेंगे ।आइए, इस दत्त जयंती को यह भाव जागृत करने का निश्चय करें ।

१ आ. अवधूत : जो अहं को धो डालता है,वह अवधूत ! पढाई करते समय आपके मनपर तनाव आता होगा न ? वास्तविकरूप में, पढाई करने के लिए बुद्धी एवं शक्ति प्रदान करनेवाले स्वयं भगवानजी ही हैं, किंतु ‘मैं पढाई करता हूं’, ऐसा कहने से तनाव आता है । यही हमारा अहंकार है । दत्त जयंती के निमित्त हम प्रार्थना करेंगे, ‘हे भगवान दत्तात्रेय ! मेराअहंकार नष्ट करने की शक्ति एवं बुद्धी आप ही हमें प्रदान करें ।’

१ इ. दिगंबर : दिक् अर्थात दिशा ! दिशा ही जिनका ‘अंबर’ है, अर्थात जिनका वस्त्र है! जो स्वयं सर्वव्यापी हैं, अर्थात जो सारी दिशाओं में व्याप्त हैं, वही दिगंबर है !यदि ये देवता इतने प्रबल हैं, तो हम जैसे सामान्य जीवों को उनकी शरण में जाना अत्यावश्यक है । ऐसा करनेपर ही हमपर उनकी कृपा दृष्टी बनी रहेगी । अब हम प्रार्थना करेंगे, ‘हे भगवान दत्तात्रेय ! आपकी शरण में कैसे जाते हैं ? यह आप ही हमें सिखाएं !’

२. भगवान दत्तात्रेय के जन्म का इतिहास

२ अ. ब्रह्मा, विष्णु एवं महेशद्वारा महापतिव्रता माता अनसूया की परीक्षा लेने का निर्णय लेना तथा आश्रम में जाकर उनके पति की अनुपस्थिती में उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन परोसने के लिए कहना :अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया महापतिव्रता थीं ।वे धर्म के अनुसार आचरण, अर्थात किसी भी कठिन प्रसंग में भगवानजी को अपेक्षित, ऐसा ही वर्तन (आचरण) करती थीं । उनका आचरण धर्म के विरुद्ध कदापि नहीं होता था ।एक समय की बात है, ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने एक बार माता अनसूया की परीक्षा लेने का निर्णय लिया । वे अतिथि का रूप लेकर माता अनसूया के पास भोजन करने के लिए आ गए । उस समय उसके पति अत्रिऋषि तप करने के लिए बाहर गए थे । तब अनसूयाने उनसे कहा, ‘‘मेरे पतिदेव को आने दें, तब आपको भोजन परोसती हूं ।’’ परंतु तीनोंने कहा, ‘‘उनके आनेतक हमारा रुकना संभव नहीं है । हमें तुरंत भोजन परोसा जाए । हमने ऐसा सुनाहै कि आपके घर आया अतिथि कदापि भूखा नहीं लौटता है, किंतु हमारी एक बात माननी पडेगी और वह है कि, ‘शरीरपर किसी भी प्रकार का वस्त्रपरिधान किए बिना हमें भोजन परोसें ।’’

२ आ. माता अनसूयाद्वारा पति का स्मरण करना एवं ऐसा भाव रखना, ‘तीनों देवता मेरे ही बालक हैं’; तथा उनका बालकों में रूपांतर होना :माता अनसूया अपने पति को परमेश्वर का प्रतीक मानती थीं। उन्होंने विचार किया, ‘मैं मन से निर्मल हूं। मेरे मन में अनिष्ट विचार नहीं हैं ।’ उन्होंने कुछ क्षण अपने पति का स्मरण किया ।तदुपरांत उन्होंने, ‘ये अतिथि मेरे ही बालक हैं’,ऐसा भाव रखा । इससे उन अतिथियों का बालकों में रूपांतर हो गया ।

बच्चो, यह कैसे संभव हुआ ?माता अनसूया पति को ही ‘भगवान’ मानकर प्रत्येक कृत्य करती थीं । उनके मन में एक क्षण के लिए भी किसी अन्य पुरुष के प्रति अनिष्ट विचार नहीं आते थे । इसलिए ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन देवताओं का बालकों में रूपांतर हुआ । इसके उपरांत माता अनसूयाने बालकों को गोद में लेकर दुग्धपान कराया ।

२ इ. तीनों देवताओंद्वारा प्रकट होकर वर मांगने के लिए कहना तथा अनसूयाद्वारा बालकों का पालन करने की इच्छा प्रकट करना । वर प्राप्त होनेपर ब्रह्मदेव से चंद्र,विष्णु से दत्त एवं शिव से दुर्वासा, ये तीन बालक प्राप्त होना :इसके उपरांत अत्रिऋषि, अर्थात अनसूया केपति आश्रम में आ गए । तभी उन्हें आश्रम में तीन तेजस्वी बालकों के दर्शन हुए । माताने ऋषि को पूरी घटना बताई । ऋषिने पहचान लिया कि ‘ये तीन बालक कौन हैं ?’अगले क्षण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश प्रकट हुए एवंउन्होंने मनचाहा वर मांगने के लिए कहा ।उसपर दोनों पति-पत्नीने कहा, ‘‘इन बालकों को हमारे पास ही रहने दें’’ उनके अनुसार वर प्रदान कर देवता अपने-अपने लोकों में लौट गए । ब्रह्मदेव से चंद्र, विष्णु से दत्त एवं शिव से दुर्वासा आदि तीन बालक माता अनसूया को प्राप्त हुए । उनमें से चंद्र एवं दुर्वासा तप करने के लिए निकल गए । केवल भगवान दत्तात्रेय विष्णु कार्य के लिए पृथ्वीपर रहे ।इस प्रकार भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ ।

बच्चो, इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान भक्तों के लिए कुछ भी करने के लिए सिद्ध रहते हैं !भक्त प्रह्लाद के लिए वे खंबे से प्रकट हुए थे तथा संत जनाबाई के लिए उन्होंने चक्की में आटा पीसा था । यदि हम उनके भक्त बन गए तथा हमारा आचरण उनकी अपेक्षा के अनुरूप हुआ, तो वे हमारे लिए कुछ भी कर सकते हैं । माता अनसूया के संदर्भ में भी यही हुआ था । हम भी आज से भगवान के प्रिय भक्त होने के लिए प्रयास करेंगे ।

३. भगवान दत्तात्रेय का कार्य

भगवान दत्तात्रेय स्वयं विष्णु के अवतार हैं । उनका कार्य है पालन करना, लोगों में भक्ति की लगन उत्पन्न करना तथा आदर्श तथा आनंदमयी जीवन व्यतीत कैसे करना है, यह सिखाना ।

४. भगवान दत्तात्रेयद्वारा बनाए गए गुरु

भगवान दत्तात्रेयने कुल२४ गुरु किए थे । इससे वे हमें सिखाते हैं कि हमें ‘सदैव‘ सीखने की स्थिती में’ रहना चाहिए । जो सीखने की स्थिती में रहता है, वही ज्ञान ग्रहण कर सकता है । आईए, इस दत्त जयंती को हम सदैव सीखने की स्थिती में रहकर आनंदमयी जीवन व्यतीत करने का निश्चय करेंगे । इसके लिए हम भगवान दत्तात्रेयद्वारा बनाए गए कुछ गुरुओं से परिचित होंगे ।

४ अ. पृथ्वी : हमें पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिए । शिशु अपनी माता की गोद में रहता है, उसे लात मारता है, उसके शरीरपर मल-मूत्र विसर्जन करता है; तब भी माता कदापि उसपर चिढती नहीं है । हम भी भूमिपर मलमूत्र विसर्जित करते हैं, खेत जोतते हैं, अर्थात भूमिपर हल चलाते हैं, तब भी वह सब चुपचाप सहन करती है । साथ ही वह बोये हुए अनाज से कई अधिक गुनाअनाज हमें पुन: लौटाती है ।

इसी प्रकार यदि किसीने हमारे लिए अपशब्दों का प्रयोग किया हो अथवा हमारा अपमान किया हो, तो बिना चिढे हमें उसे क्षमा कर, प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । पृथ्वी का यह गुणआत्मसात करनेपर हम दूसरों को आनंद दे सकेंगे ।

४ आ. वायु : भले ही वायु किसी भी स्थानपर जाए, वह विरक्त रहता है । हम अयोग्य एवं गुणहीन बच्चों के सहवास में रहनेपर तुरंत उनके समान बन जाते हैं । इसलिए हमें वायु के समान विरक्त रहना चाहिए ।

४ इ. आकाश : आकाश के समान आत्मा भी चराचर वस्तुओं में व्याप्त है । वह सभी से एक समान व्यवहार करता है । उसका किसीसे भी शत्रुत्व न होने के कारण वह निर्मल है । हमें भी मन से निर्मल होने के लिए प्रयास करना चाहिए ।

४ ई. जल : हम में जल के समान सभी से स्नेहपूर्वक वर्तन करना चाहिए । जल भेदभाव नहीं करता है ।सभी से समान व्यवहार करता है । हम जिस पात्र में उसे रखते हैं,उसी का आकार वह धारण कर लेता है । उसी प्रकार हमें भी सभी के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए । जल उच्च स्थान का त्याग कर निचले स्थानपर आता है । उसी प्रकार हमें भी अपने अहंकार त्याग कर शरणागत होना चाहिए ।

४ उ. अग्नि : अग्नि अंधेरे को मिटा देता है । हमें भी स्वयं एवं दूसरों के जीवन का अहंकाररूपी अज्ञान नष्ट करना चाहिए । ऐसा होनेपर ही हम स्वयं एवं समाज आनंदमयी जीवन व्यतीत कर सकेंगे । जिस प्रकार अग्नि की चिनगारी एक क्षण में बुझ जाती है ।उसी प्रकार हमारा देह भी क्षणभंगुर होता है । इसलिए व्यर्थ में उसका अभिमान रखने की अपेक्षा भगवान का अस्तित्व मान्य करना चाहिए । देह का अस्तित्व आज है परंतु कल नहीं होगा; किंतु‘हम में स्थित आत्मा आज भी है एवं वह अनंत काल तक रहेगा’,इसका भान हम में जागृत करने का दिवस दत्त जयंती है ।

४ ऊ. चंद्र : चंद्र अपनी शीतल किरणों से दूसरों को आनंद देता है। हमें भी अपने प्रत्येक कृत्य से अन्यों कोआनंद देना चाहिए । आज हमें स्वयं को यह भान कराना चाहिए;एवं भगवान दत्तात्रेय से प्रार्थना करनी चाहिए, ‘हे दत्तात्रेय, आप जिस प्रकार अपने तेज से दूसरों को आनंद प्रदान करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी बोल-चाल से अन्यों को आनंद प्रदान करने आने दें।’ भगवान दत्तात्रेय के चरणों में इस प्रकार क्षमायाचना करें, ‘हे भगवान दत्तात्रेय, आजतक मेरे कृत्यों से यदि किसी को पीडा पहुंची हो, तो मुझे क्षमा करें ।’

४ ए. सूर्य : सूर्य सभी को एक समान प्रकाश एवं उष्णता देते हैं ।

४ ऐ. अजगर : अजगर स्वयं पूर्णरूप से अपने प्रारब्धपर विश्वास रखकर निश्चिंत रहता है । जो प्राप्त होता है, उसे ही खाता है ।वह तीखा-मीठा (पसंद-नापसंद)को न देख व्यर्थ प्रलाप नहीं करता है । हमें भी अपने जीवन में जो भी प्राप्त होगा, उसे आनंद से स्वीकारना चाहिए ।

४ ओ. सागर : नदियोंद्वारा वर्षा ऋतु में अधिक मात्रा में जललानेपर भी सागर न तो हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है ।इसी प्रकार हमें भी जीवन में भी कष्ट आनेपर दु:खी नहीं होना चाहिए अथवा अधिक मात्रा में सुख मिलनेपर उसी आनंद में डूब जाना चाहिए । प्रत्येक परिस्थिती में स्थिर एवं शांत रहना चाहिए ।

४ औ. बालक : बालक ‘कोई मेरी पूछताछ करे अथवा मुझे सम्मान दे’, ऐसा विचार कभी नहीं करता है, इसलिए वह सदैव प्रसन्न रहता है । सम्मान-अपमान की चिंता किए बिना सभी चिंताओं का परित्याग कर हमें बालक के समान व्यवहार करना चाहिए ।

४ अं. वृक्ष : वृक्ष सदैव परोपकार करता है । वह छाया, फल,फूल आदि सर्व दूसरों को दे देता है, किंतु दूसरों से किसी भी बात की कोई कामना नहीं रखता है । हमें भी यदि आनंदमय जीवन बिताना है, तो हमारा प्रत्येक कृत्य निरपेक्ष होना आवश्यक है ।

५. भगवान दत्तात्रेय के परिवार का अर्थ

५ अ. गाय : भगवान दत्तात्रेय के पीछे खडी हुई गोमाता पृथ्वी एवं कामधेनू का प्रतीक होती है । कामधेनू हमें इच्छित वस्तू प्रदान करती है । पृथ्वी एवं गोमाता भी हमें सभी इच्छित प्रदान करती है।

५ आ. ४ श्वान (कुत्ता) : यह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवंअथर्ववेद, इन ४ वेदों का प्रतीक हैं ।

५ इ. औंदुबर का वृक्ष : भगवान दत्तात्रेय का पूजनीय स्वरूप ! इस वृक्ष में भगवान दत्तात्रेय का तत्त्व सर्वाधिक रहता है ।

६. मूर्तिविज्ञान

भगवान दत्तात्रेय के मूर्ति में चित्रित अन्य वस्तुओं का भावार्थ आगे दिए अनुसार है ।

६ अ. कमंडलू एवं जपमाला : माला ब्रह्मदेव का प्रतीक है ।

६ आ. शंख एवं चक्र : श्रीविष्णु का प्रतीक हैं ।

६ इ. त्रिशूला एवं डमरू : शिव का प्रतीक है ।

६ ई. झोली : यह अहं का लय हुआ है, इसका प्रतीक है । झोली लेकर घर-घर घूमकर भिक्षा मांगने से अहं नष्ट होता है ।

७. प्रमुख तीर्थस्थल

७ अ. माहूर : तहसील किनवट, जनपद नांदेड, महाराष्ट्र.

७ आ. गिरनार : यह सौराष्ट्र में जूनागढ के समीप है । यहां १०सहस्र सीढियां हैं ।

७ इ. कारंजा : श्री नृसिंह सरस्वती का जन्मस्थान ! काशी के ब्रह्मानंद सरस्वतीजीने यहां सर्वप्रथम दत्तमंदिर की स्थापना की थी।

७ ई. औदुंबर : श्री नृसिंह सरस्वतीजीने चातुर्मास के काल में यहां निवास किया था । यह स्थान महाराष्ट्र के भिलवडी स्थानक से १०कि.मी. की दूरीपर कृष्णा नदी के तटपर है ।

७ उ. नरसोबा की वाडी : यह स्थान महाराष्ट्र में है । श्री नृसिंहसरस्वतीने यहांपर १२ वर्ष व्यतीत किए ।यहां कृष्णा एवं पंचगंगा नदियों का मिलन है ।

७ ऊ. गाणगापुर : यह स्थान पुणे-रायचूर मार्गपर कर्नाटक में है ।यहां भिमा एवं अमरजा नदियों का मिलन है । यहांपर नृसिंहसरस्वतीने अपने २३ वर्ष व्यतीत किए थे ।

८. यात्रा के लिए अन्य स्थलों की अपेक्षा तीर्थस्थलोंपर जाकर वहां के चैतन्य का लाभ लेंगे

भगवान दत्तात्रेय के सभी तीर्थस्थल अत्यंत जागृत होते हैं । कहीं दूर यात्रा के लिए जाने की अपेक्षा हमें ऐसे जागृत स्थलों को प्रस्थान करना चाहिए । इससे वहां की शक्ति का हमें लाभ होता है । अन्य स्थलों को प्रस्थान करने की अपेक्षा तीर्थस्थलोंपर यात्रा ले जाने के संदर्भ में आप के शिक्षकों से बात करें । अनेक लोगों को वहां जानेपर शांति, मन की एकाग्रता में वृद्धी होना एवं (प्रमाद) उत्साह बढना, ऐसी अनुभूतियां हुई हैं ।

९. भगवान दत्तात्रेय की आराधना कैसे करें ?

९ अ. गंध : भगवान दत्तात्रेय को अनामिकाद्वारा (छोटी उंगली के समीपवाली उंगली से) तिलक लगाएं ।

९ आ. फूल : जाई एवं निशीगंधा के फूल सात अथवा सात की गुणा में अर्पित करें ।

९ इ. उदबत्ती : चंदन, केवडा, चमेली, जाई अथवा अंबर इन गंधों की उदबत्तियां लगाएं ।

९ ई. इत्र : भगवान दत्तात्रेय को ‘वाळा’ इस गंध का इत्र अर्पण करें।

९ उ. प्रदक्षिणा : भगवान दत्तात्रेय की ७ प्रदक्षिणा करें ।

१०. प्रत्येक देवता के वर्णों के शास्त्रीय ज्ञान को जानकर उसे अन्यों को बताकर धर्मप्रसार करें

बच्चो, आज हमने भगवान ‘दत्तात्रेय’ देवता के विषय में ज्ञान प्राप्तकिया । इससे हम यह समझ गए हैं कि हमें अपने धर्म का ज्ञानलेना कितना आवश्यक है ! पाठशाला में हमें यह शिक्षा न मिलने के कारण हमारी अपने देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा नहीं बढती है । यदि कोई इस विषय में कुछ पूछता है, तो हम नहीं बता पाते हैं ।

इस परिस्थिती को बदलने के लिए अपने देवताओं का शास्त्रीय ज्ञान समझ लेंगे एवं उसे दूसरों को भी बताएंगे । ऐसा सत्कृत्य करने से ही भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न होंगे । तो बच्चो, अब अपने देवी-देवताओं का ज्ञान समाज को बताकर हम धर्मप्रसार करेंगे ना ?

– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरुजी), पनवेल.

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