‘श्रीरामचरितमानस’ के रचियता संत गोस्वामी तुलसीदास

मानवी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों का दर्शन करानेवाले, उदात्त एवं स्वयं धर्माचरण कर अन्यों से करवानेवाले संत ही समाज में प्रत्येक कठिन परिस्थिति में ईश्वर निष्ठापर दृढ रहकर, धर्मरक्षा का कार्य करते आए हैं, कर रहें हैं, और करते रहेंगे । ऐसे ही एक संतश्री के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में उनके श्रीचरणों में शत-शत वंदन करते हैं, जिनके कारण हम आज अपना परिचय एक हिंदु के रूप में दे पा रहे हैं । संभवतः, वे अकेले संत है, जिन्होंने ‘राम’ नाम जपनेपर जितना जोर दिया है, उतना ही जोर राम का काम करनेपर दिया है । उदा. ‘राम काज लगि तव अवतारा ।’ संतों की आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म है, यह मर्म जानते हुए आइए, हम सब मिलकर ‘हिंदुधर्म’की रक्षा हेतु संगठित होकर ‘रामकाज’, अर्थात् रामराज्य की स्थापना करें ।

तुलसी तुलसी क्या करे, तुलसी बन की घास ।
कृपा हुई प्रभुराम की, तो बन गए तुलसी दास ।।

गोस्वामीजी की भक्तिमूलक रचनाओं में लोकमंगल की भावना

गोस्वामीजी की महानता तथा उनके काव्य के मर्म को समझकर उनका आंकलन करना अत्यंत दुष्कर है; काकभुशुंडीजी श्रीरघुनाथजी के रहस्य (गोस्वामीजी के काव्य के वर्ण्य- विषय) के विषय में बताते हुए कहते हैं । ‘ हे गरुडजी! यह अकथनीय कथा है; यह समझने का विषय है, कहने का नहीं ।

‘सुनहु तात यह अकथ कहानी ।
समुझत बनइ न जाइ बखानी ।।’

तथापि यहां तुलसी-साहित्य की संक्षिप्त परिक्रमा करने का प्रयास किया गया है । तुलसी सत्यद्रष्टा, मंत्रद्रष्टा तथा युगद्रष्टा ऋषि थे; जिनकी प्रतिभा विलक्षण थी तथा भक्ति-साधना अलौकिक थी । उनका जीवन ईश्वरानुराग एवं भगवद्-भक्ति का ज्वलंत प्रकाश स्तंभ है और उनका समग्र साहित्य भक्ति-भाव से ओत-प्रोत है, जिसका अद्भुत माधुर्य एवं लालित्य भारतीय जीवन को ज्ञान तथा भक्तिके आलोक से दैदिप्यमान करता रहा है । उन्होंने अपने भक्तिरसानुभूति से आप्लावित साहित्य के द्वारा भारत के धार्मिक,सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में एक क्रांतिकारी युगान्तर उपस्थित किया ।

तुलसी मूलतः भक्त थे, भगवद्भक्ति ही उनकी साधना एवं आराधना का केंद्रबिंदु थी तथा काव्य उनकी अभिव्यक्ति का एक साधनमात्र । अपने आराध्यदेव प्रभु श्रीराम के प्रति उठनेवाले हृद्गत भावों का समर्पण ही उनके समग्र काव्य के रूप में प्रस्फुटित हुआ । अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए ही वे जीवन-पर्यंत राम-चरित्र का गुणगान करते रहे । उन्होंने स्वयं कहा है –

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुल सीं कह्यो ।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो ।।

(रा.च.मा. १। ३६१ छंद)

यद्यपि उन्होंने भगवत्प्रेम को ही अपने काव्य-सर्जन का प्रेरक तत्त्व बनाकर ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा’की उद्घोषणा की थी; किंतु उनका समस्त साहित्य ‘स्वान्तः सुखाय’ ही न होकर ‘सर्वजनहिताय’ हो गया; क्योंकि उसमें भारतीय जीवन तथा दार्शनिक भाव-बोध की समग्रता ही नहीं, अपितु मानवमात्र के जीवन- दर्शन को रूपायित, व्याख्यायित तथा परिष्कृत किया गया है । तुलसी-साहित्य ऐसा अद्भुत वाङमय है, जो सभी के मन- प्राण में रचा-बसा है । वह शिक्षित और अशिक्षित दोनों को समानरूप से समादृत है, सभी उसके अनुशीलन से भाव- विभोर हो उठते है; क्योंकि तुलसी का काव्यादर्श था –

कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहं हित होई ।।

(रा.च.मा. १।१४।९ छंद)

उनकी रामकथा निगमागम सम्मत तथा काव्य की निरुपित मर्यादा के अनुरूप होने के कारण ही इतनी लोकप्रिय तथा स्तुत्य हो सकी । उनकी कृतिका सुफल है –

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि ।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ।।

(रा.च.मा. १।३१।५छंद)

निष्काम भक्ति

तुलसीजी की भक्ति के अनेक आयाम हैं । उनकी भक्ति पूर्णतया निष्काम थी । उनके लिए भक्ति ही सब कुछ है तथा श्रीराम से निरतिशय प्रेम तथा उनकी सेवाद्वारा उनसे तादात्म्य प्राप्त करना ही संत तुलसी के लिए चरम पुरुषार्थ है । वे अन्य अनेक देवी-देवताओं के माध्यम से भी श्रीराम से जुडना चाहते हैं, उदा.

‘नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहां लौं ।’

(विनय-पत्रिका, पद १७४)

मानस के सुंदरकांड के मंगला चरण में उन्होंने प्रार्थना की है –

नाना स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।

वे तो पूर्णतया प्रभु श्रीराम की कृपापर निर्भर थे । उनके मनोरथों की पूर्ति प्रभुकृपापर निर्भर है । उनकी विनती है –

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बडाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढै अनुदिन अधिकाई ।।

(विनय-पत्रिका, पद १०३)

वे चातक की एकांगी भक्ति को अपना आदर्श मानते थे ।

एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास

(दोहावली, दोहा २७७)

उनकी भक्ति में निष्कामता है, निर्भरता है, एकांगता है तथा अनन्यता है ।

सेवामूलक भक्ति

संत तुलसीदासजी की भक्ति सेवामूलक है । संत तुलसीदासजी के लिए भक्ति का अर्थ है, सच्ची सेवा । उनका दृढ विश्वास है कि, ‘सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि’ (रा.च.मा. ७। ११९), किंतु सेवा तो कर्मठता के बिना हो ही नहीं सकती । इसी सेवामूलक भक्ति-भाव की पुष्टि के लिए ही उन्होंने मनुष्य को आलसी, प्रमादी, अकर्मण्य तथा भाग्यवादी बनने का कभी समर्थन नहीं किया । सब कुछ भाग्य के भरोसे छोडकर हाथपर हाथ रखकर बैठ जानेवाले व्यक्तियों के प्रति लक्ष्मणजीने कहा है –

‘कादर मन कहुं एक अधारा ।
दैव दैव आल सी पुकारा ।।’

(रा.च.मा.५। ५१। ४)

प्रबल विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होनेपर भी उनसे साहसपूर्वक जूझना तथा श्रीराम का स्मरणकर पुरुषार्थद्वारा भाग्यपर विजय पाना तुलसी का अभीष्ट था उदा. –

‘राम सुमिरि साहसु करिय, मानिय हिएं न हारि ।।’

सत्कर्म की महत्तापर बल देते हुए हनुमानजीने कहा है –

‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम ।।’

(रा.च.मा. ५।१)

भक्ति की विश्वव्यापी मांगलिक धारणा

प्रभु श्रीराम की सेवा के संबंध में तुलसी की अवधारणा अत्यंत व्यापक एवं विश्वव्यापी है । परमात्मा की सेवा को उन्होंने ईश्वर के अवतारी स्वरूप जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण अथवा किसी अन्यतक ही सीमित नहीं रखा और न ही पूजा- अर्चा अथवा उपासना-पद्धति को मठों, मंदिरोंतक आबद्ध किया । उनके लिए प्रभु-सेवा का व्यापक अर्थ है, संपूर्ण विश्व के प्राणियों की सच्ची एवं निष्कपट सेवा । चराचर जगत्को परम प्रभु का व्यक्तरूप समझकर उसकी सेवा करना मानो भगवान्की सेवा है । इसी लोक तथा इसी जन्म में समष्टि- हित के लिए प्राणपण से प्रयास करते रहना तथा सभी के कल्याण की निरंतर कामना करना भी तो भगवत्सेवा का ही एक विशदरूप है । तभी तो तुलसीदासजीने श्रीराम का कथन लिखा है –

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।।

(रा.च.मा. ४ । ३)

प्रभु के अनन्य सेवक की दृष्टि में यह जगत् ‘सीय-राममय’ है । अतः, वह सहज ही इस जगत् को अपना सेव्य मानकर जीवन-यापन करता है । तुलसीने स्पष्ट रूप से कहा है –

‘सीय राममय सब जग जानी ।
करउं प्रनाम जोरि जुग पानी ।।’

उन्होंने अन्यत्र भी कहा है ।-

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ।।

(रा.च.मा.७। ११२ ख)

उनकी दृष्टि में संसार में उत्तम व्यवहार करने का सूत्र है ।-

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीडा सम नहिं अधमाई ।।

(रा.च.मा. ७ । ४१। १)

किंतु परहित करने  भी अहंकार का आवेश हो सकता है, इसीलिए वे संसार को अपने आराध्य प्रभु का व्यक्तरूप मानकर उसकी सेवा करने को अधिक उच्च आदर्श मानते हैं । तभी तो वे कह उठते हैं -‘सब तें सेवक धरमु कठोरा ।’

संदर्भ : (अयोध्याकांड)

वस्तुतः ‘सेवक-सेव्य भाव’ ही तुलसी का जीवनाधार रहा है । उनका दृढ मत है कि जबतक व्यक्ति अपने को नाम-रूप- धारी मानता रहे, तबतक अपने को सेवक तथा चराचर जगत्को प्रभु का व्यक्त रूप मानकर अपना ‘सेव्य’ मानना चाहिए । तभी तो उन्होंने जगत्को ‘सीय राममय’ माना है । फलतः व्यवहार में वे उसकी सेवा करना अपना धर्म समझते थे । इसीलिए उन्होंने स्वयं श्रीराम के श्रीमुख से कहलवाया था कि, मुझे सेवक प्रिय है तथा उनमें भी अनन्यगति सेवक विशेषरूप से प्रिय है । तात्पर्य यह कि जो दृढतापूर्वक इस समग्र सृष्टि को प्रभु का ही व्यक्तरूप मानकर इसकी सम्यक् सेवा में रत रहता है, वही श्रीराम का अनन्य भक्त है । सेव्य के रूप में समस्त जगद्रूपी श्रीराम को स्वीकारने का अर्थ ही है कर्मठतापूर्वक ‘हेतु रहित परहित निरत’ बना रहना ।

कर्मठता अथवा कर्म-चेतना भक्ति का अभिन्न अंग

कर्म-चेतना अथवा सक्रियता स्वतंत्र होकर भक्ति का अनिवार्य अंग होनी चाहिए । कर्म हमें कुमार्गपर न ले जाए इसलिए उसे भगवद्भक्तिद्वारा अनुशासित एवं संचालित करना चाहिए । साथ-ही-साथ, भक्ति भी नितांत वैयक्तिक बनकर विकृतरूप में निष्क्रिय न हो जाए, अतएव उसे चराचर जगत्के रूप में प्रभु की सेवा में लगा देना श्रेयस्कर होगा ।

अतः, भक्ति को अपनी समाजोन्मुखी वैयक्तिक साधना मानने के कारण ही तुलसी का सभी संत– समाज में विशिष्ट स्थान है । उन्होंने राम के नामपर जितना बल दिया है, उतना ही बल दिया है राम के कामपर । उनके अनुसार आदर्श भक्त वह है, जो राम के कार्य की सिद्धि में विशेष साधन बनता है । जटायु जैसे प्रभु-कार्य हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग करनेवाले तथा अतएव, राम का नाम जपते हुए,उनके परम पावन चरित्र से प्रेरणा प्राप्तकर श्रीराम के कार्य में प्राण-पणसे रत भक्तों का निर्माण करने के उद्देश्य से ही उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया है –

‘राम सुमिरि साहसु करिय, मानिय हिएं न हारि ।।’

(रामाज्ञा- प्रश्न)

भक्तिमय सत्कार्यद्वारा समग्र समष्टि का हित करने की प्रेरणा देते हुए तुलसीने हमें अर्थपरक, उपभोक्तावादी, बाह्य मनोहर कलेवर के आधारपर संग्रह-त्याग करने की प्रवृत्ति के विरुद्ध चेतावनी देते हुए ठीक ही कहा है –

मनि भाजन मधु पारई पूरन अमी निहारि ।
का छांडिअ का संग्रहिअ कहकु बिबेक बिचारी ।।

(दोहावली, दोहा ३५१)

अर्थात्, मणि के पात्र में मद्य हो और मिट्टी की परई में अमृत, तो क्या अमृत को त्यागकर पात्र की चमक- दमक से प्रलुब्ध होकर मद्य का स्वीकार करना विवेक का सूचक होगा ? कदापि नहीं ।

वस्तुतः तुलसी-साहित्य निःसंदेह मणि- पात्र है तथा राम-भक्ति उसमें भरा हुआ अमृत । वे वास्तव में बडभागी हैं, जो ऐसे अद्भुत संयोग का लाभ उठाकर अपने ऐहिक जीवन को ही धन्य नहीं करते, वरन् लोक-परलोक दोनों को सुधार लेते हैं तथा जन-साधारण के लिए तुलसी की ही भांति सतत प्रेरणा एवं शक्ति के स्त्रोत बन जाते हैं ।

संदर्भ : www.hindujagruti.org