गोंदवलेकर महाराज

जन्म एवं बचपन

श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराजजी का जन्म शाके १७६६ माघ शुद्ध द्वादशी (१९फरवरी १८४५) बुधवार, प्रातः ९:३० बजे गोंदवले बुद्रुक नामक गांव में, तहसील माण, जनपद सातारा में हुआ था । उनके वंश में विठ्ठलभक्ति एवं पंढरपुर की बारी है तथा उनके पूर्वज सदाचार संपन्न एवं सात्त्विक वृत्ति के थे । जन्म के समय उनका नाम गणपति रखा गया था । श्री ब्रह्मचैतन्य श्रीराम के उपासक थे । वे स्वयं को ब्रह्मचैतन्य रामदासी कहते थे ।

गुरुकृपा

आयु के नवें वर्ष में उन्होंने गुरु की खोज में घर छोडा । उनके पिताजीने कोल्हापुर से उन्हें वापस लाया । कुछ समय पश्चात उन्होंने पुनः गृहत्याग कर गुरु की खोज में पदभ्रमण प्रारंभ किया । अनेक संतपुरुषों से भेंट की । अंततः मराठवाडा के नांदेड के निकट येहळगाव में ‘श्रीतुकामाई’से उनको शिष्यत्व प्राप्त हुआ । अत्यंत कठोर परीक्षाएं देते हुए, गुरुआज्ञा का पालन करते हुए, उन्होंने गुरुसेवा की । उस समय उनकी आयु १४ वर्ष की थी । श्रीतुकामाईजीने उनका नाम ‘ब्रह्मचैतन्य’ रखा, रामोपासना की शिक्षा दी तथा अनुग्रह देने का अधिकार दिया । उसके उपरांत श्रीतुकामाईजी के आदेशानुसार महाराजजीने दीर्घ कालतक तीर्थाटन किया ।

उपरांत का जीवन

गृहत्याग के नौ वर्ष उपरांत श्रीब्रह्मचैतन्य महाराजजी गोंदवले लौट आए । यहां से संपूर्ण जीवन उन्होंने रामनाम का प्रसारकर विविध स्थानोंपर राममंदिरों की स्थापना हेतु अपना समय व्यतीत किया । गुरु की आज्ञा के अनुसार स्वयं गृहस्थाश्रम में रहकर जनसामान्य को, गृहस्थी में रहकर परमार्थ को कैसे साध्य किया जाए, इसका मार्गदर्शन किया । किसी भी परिस्थिति में राम का स्मरण रखना तथा उनकी इच्छा से गृहस्थी में स्थित सुख-दुख भोगने हैं, यह उनके उपदेश का सारांश है । गोरक्षण एवं गोदान, अखंड अन्नदान, अनेक समय विविध कारणों से की हुई तीर्थयात्राएं ये महाराजजी के चरित्र की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं । सुष्ट तथा दुष्ट, ज्ञानी तथा अज्ञ, इनके विषय में समभाव, निस्पृहता, कल्याणकारी वृत्ति, दीन अनाथों के प्रति करुणा, व्यवहार चातुर्य, लोकप्रिय,सहनशीलता, रसीली एवं मधुर वाणी ये महाराजजी के सहजगुण हैं । प्रत्येक को समझ में आए ऐसी भाषा में वे युक्तिपूर्वक मार्गदर्शन करते थे । सामान्यजनों से वे घरेलू तथा सुलभ भाषा में वार्तालाप करते, साथ ही वेदसंपन्न ज्ञानी जनों से वार्तालाप करने का प्रसंगआनेपर उनको भी वैदिक कर्मों के साथ नामस्मरण करने की आवश्यकतापर बल देते थे ।
उनकी श्रीराम से होनेवाली अनन्यता तथा दृढ श्रद्धा उनके आचरण तथा भाषा से स्पष्ट होती थी । उन्होंने नामस्मरण एवं साधनामार्ग की वर्तमान युग में होनेवाली महिमा तीव्र लालसा एवं विविध मार्गों से मार्मिक उदाहरण देकर बताई । श्री राम जय राम जय जय राम इस त्रयोदशाक्षरी मंत्र की महिमा विषद करने हेतु उन्होंने कीर्तन, प्रवचन, वार्तालाप, शंकासमाधान इन सभी मार्गों का अवलंबन किया । श्रीराम की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, तथा अखंड रामनाम लेने से आनंद एवं प्रसन्नता मिलती है, महाराजजी के इस उपदेश का अनुभव उनका सहवास प्राप्त किए प्रत्येक साधकने लिया है ।

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