अध्यापन एक साधना !

शिक्षा का उद्देश्य तथा शिक्षा से क्या प्राप्त करना है, इसका विस्मरण हुई वर्तमान शिक्षा प्रणाली

शिक्षा का उद्देश्य

१. ‘विद्यार्जन करना यह शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है ।

२. ‘सा विद्या या विमुक्तये’ : दुखों को नष्ट कर हमे निरंतर आनंद कैसे मिलेगा, इसका ज्ञान जिससे प्राप्त होता है, वह विद्या है ।

शिक्षा से प्राप्त लाभ

१. ज्ञानसंवर्धन तथा बुद्धी का विकास

२. हमारे सिखाने की कुशलता तथानिपुणता

३. जीवन के नैतिक मूल्यों का संगोपन तथा संवर्धन

४. चरित्र संपन्न व्यक्तित्व का निर्माण

५. अपनी सांस्कृतिक धरोहर में सुधार करना तथा उसे आगे की पिढी को प्रदान करना

६. हमारे जीवन का क्या लक्ष्य होना चाहिए, उसे कैसे प्राप्त करें, इसका मार्गदर्शन करना

७. विद्यार्थियों को आदर्श नागरिक के रूप में विकसित करना

वर्तमान शिक्षाप्रणाली

बुदि्धमान विद्यार्थी अच्छे गुणों को प्राप्त कर आधुनिक वैद्य, अभियंता अथवा बडे अधिकारी बनना, किंतु वे सुखी, संतुष्ट होंगे ही, इसकी आश्वस्तता न होना : वर्तमान शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी को अधिकतम गुण प्राप्त कर उसे आधुनिक वैद्य, अभियंता अथवा अन्य अच्छे उद्योग में कैसे प्रवेश मिलेगा, इसकी ओर ही अभिभावकों का, साथ ही विद्यार्थियों का ध्यान केंदि्रत होता है । समाज भी शिक्षासंस्थानों के परिणाम कितने प्रतिशत निकलते हैं, केवल इसी आधारपर वह संस्थान उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट है, यह सुनिशि्चत करते हैं । इन गुणों को प्राप्त करने के लिए अध्यापक विद्यार्थियों को प्रश्नपति्रकाओं को सुलझाने के अभ्यास को अधिक घंटोंतक कराना, टिप्पणियां (नोट्स) देना, इत्यादिद्वारा मार्गदर्शन करते हैं । बुदि्धमान विद्यार्थी अधिक अध्ययन करने से आधुनिक वैद्य, अभियंता अथवा बडे अधिकारी होंगे भी; किंतु वे सुखी, संतुष्ट होंगे ही, इसकी आश्वस्तता नहीं होती ।

प्रत्येक कृत्य धर्मद्वारा निर्देशित नियमों के अनुसार ही किया जाए, ऐसा भारतीय संस्कृति का बताना :
पूर्वकाल में विद्यार्थि को मौजी बंधन के पश्चात् गुरूगृह में धर्म की शिक्षा दी जाती थी । : उसके जीवन का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये चार सूत्र हैं, यह बात उसके मनपर अकित की जाती थी । प्रत्येक कृत्य धर्मद्वारा निर्देशित नियमों की चौखट में बिठाकर ही किया जाए, ऐसा भारतीय संस्कृति बताती है ।

अध्यापन को साधना के रूप में प्रारंभ करने के उपरांत अध्यापकों को ध्यान में रखने योग्य सूत्र

अपना आदर्श विद्यार्थियों के समक्ष रखना: केवल उपदेश न कर अपना आचरण तथा विचार कैसे हों, इसका अध्ययन अध्यापक को करना होगा; क्योंकि सामने बैठा हुआ विद्यार्थी अध्यापक के प्रत्येक कृत्य का अनुकरण करता है । उसके अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करता है । इस कारण अध्यापक का प्रत्येक कृत्य आदर्श ही होना चाहिए ।

अध्यापक को अपने कृत्य के माध्यम से विध्यार्थियों को विकसित करना:
उपदेश कितना भी अच्छा हो, उसपर आपत्ति तो होगी ही; परंतु अच्छे कृत्यपर कोई आपत्ति नहीं उङ्गा सकता । इसीलिए अध्यापक को अपने कृत्योंद्वारा विद्यार्थि को विकसित करना चाहिए, उदा. कक्षा में अन्य अध्यापक, अधिकारी अथवा अतिथियों के आनेपर विद्यार्थियों को नमस्कार करना सिखाया जाता है । उस समय वे स्वयं नमस्कार नहीं करते । उस समय यदि अध्यापक वह कृत्य करता है , तो विद्यार्थियोंपर उसका प्रभावअधिक शीघ्रता से पडता है ।

बालकों को अतिरिक्त वाचन करें, ऐसा बताने के साथ यदि अध्यापक किसी ग्रंथ के सूत्र बताएंगे, तो बच्चों को अतिरिक्त वाचन में आस्था निर्माण होती है ।

सिखाने की दो पद्धतियां

तात्ति्वक अंग : ग्रंथ के घटकों को पढकर खडिया, फलक की सहायता से मौखिक रूप से समझाकर बताना अथवा किसी शिक्षा सामग्री को सिद्ध कर उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न करना । इसमें पहले सूत्र का ही अधिकाधिक उपयोग होता है ।

प्रायोगिक अंग : प्रत्येक घटक मौखिक रूप से बताते-बताते विद्यार्थियों को यदि प्रत्यक्ष कृत्योंद्वारा सिखाया गया, तो वह अधिक सरलता से समझता है ।

संस्कारजन्य कथाएं बताकर उससे क्या बोध लेना है, यह बताना

अध्यापक प्रत्येक घटक का आध्याति्मकरण करें । तो उससे ज्ञान के सहित संस्कार करना भी संभव होगा । मनोरंजन के माध्यम से संस्कार, ज्ञान जैसी बातों को अध्यापक एक साथ ही साध्य कर सकता है । उदा. किसी बडी कक्षा में पाठ्यपुस्तक के आहार इस घटक को सिखाते समय चौरस आहार तथा पुष्टीकारी आहार इन संकल्पनाओं का आध्यति्मकरण करते समय सात्त्विक तथा तामसिक आहार के कारण विचारोंपर होनेवाला प्रभाव आदी सूत्र अध्यापक बता सकते हैं ।

संस्कार योग्य आयु

आयु जितनी छोटी, उतना संस्कार अधिक मात्रा में अंकित होता है । सद्गुणों की उपासना बाल्यावस्था में ही संभव होती है । विचार तथा कृत्य अच्छे होने के लिए संस्कारों की आवश्यकता होती है । पाठशाला की आयु तो संस्कारों के लिए अनुकूल होती है, इसे ध्यान में रखकर अध्यापक को अपना कार्य करना चाहिए । ऐसा करने से अध्यापक समाजऋण को चुका सकता है । अध्यापक यदि कर्तव्य बुदि्ध से इस कर्म का आचरण करेंगे, तो अध्यापन एक साधना होगी । अन्नदान, सुवर्णदान इनकी तुलना में विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।

छंद का संगोपन

छंद अर्थात, किसी बात में अर्थार्जन का उद्देश्य न रखते हुए केवल मनोरंजन के लिए अन्य समय में किए जानेवाले कृत्य । इससे बालक समय व्यर्थ नहीं गवांते है, अपितु सदैव किसी ना किसी काम में व्यस्त होते हैं । फलस्वरूप जीवन आनंददायी तथा मन सदैव प्रसन्न रहता है । विद्यार्थियों की आस्था देखकर किसी छंद का संगोपन करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । यह सब करने के लिए अध्यापक को तपश्चर्या अर्थात साधना करना आवश्यक है ।’

– श्रीमती वंदना करचे (अध्यापिका),पिंपरी, पुणे.