शिक्षकों की भूमिका कैसी हो ?

आज देश को वैज्ञानिक एवं मानवतावादी वृत्ति की आध्यात्मिकतावाले शिक्षकों की आवश्यकता है; परंतु ऐसी शिक्षा शिक्षकों को ही प्रशिक्षण में नहीं दी जाती । इसलिए वे विद्यार्थियों को बनाने में न्यून पडते हैं । सभी शिक्षकों के लिए मार्गदर्शक हों, ऐसे सूत्र लेख में दिए हैं ।

१. विचार एवं विवेक यह दोनों दृष्टिकोण जिसमें हैं वही व्यक्ति अध्यात्म के शिखरतक जा सकता है

‘विचार एवं विवेक यह प्रगती के कारण हैं’, हमें ऐसी सीख उन्हें देनी चाहिए । उनमें वैज्ञानिक वृत्ति की निर्मिती होनी चाहिए । हमें किसी भी प्रश्न के विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना चाहिए एवं इस वैज्ञानिकदृष्टिकोण का मानवतावादि दृष्टिकोण से संबंध बनाना चाहिए । यह दोनों दृष्टिकोण जिस व्यक्ति में हैं वही आध्यात्मिक मार्गक्रमण कर अध्यात्मज्ञान के शिखर को प्राप्त कर सकता है ।

यह विज्ञान शिक्षक का ही कार्य नहीं, तो सभी शिक्षकों का कार्य है । जिस समय हम बच्चों में यह दोनों प्रेरणा निर्माण कर सकेंगे, उस समय हमारे राष्ट्र की महान

आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को समझने की पात्रता उनमें निर्मित होगी । लोगों के जीवन में वे चैतन्य एवं आनंद निर्माण कर सकेंगे । उन्हें उपनिषदों के उत्तुंग तत्वज्ञान का ज्ञान होगा । जीवन को देखने का ऋषिमुनियों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण वे जान सकेंगे ।

२. राष्ट्र की खरी संपत्ति अर्थात देश में मानवी ऊर्जा का स्त्रोत निर्माण होना

वेदांत ने सदा ही तर्कसंगत प्रश्न पूछनेपर बल दिया है; इसलिए ऐसी चिकित्सक, वैज्ञानिक एवं सत्यशोधक वृत्ति की बच्चों में वृद्धि हो, इस हेतु हमारी शिक्षापद्धति में बल देना चाहिए । ‘सत्य क्या है ? सत्य जीवन कैसा होता है ? एवं मिथ्या बातें छोडकर सत्य बातें अपने जीवन में कैसे ला सकते हैं ?, इस प्रकार के शोधक एवं जिज्ञासू वृत्ति हमारे बच्चों में अनेक सुप्त शक्तियों को चेता सकेगी, इस प्रकार हमारे बच्चों की वृत्ति में परिवर्तन हो सका, तो राष्ट्र की खरी संपत्ति, अर्थात मानवी ऊर्जा का स्त्रोत हमारे देश में निर्मित होगा । इसी को मानव संसाधन विकास कह सकेंगे । इससे हमारा राष्ट्र अधिक महान बनेगा ।

३. शिक्षा का आत्मा

मनुष्य के ऊर्जा स्त्रोत का संवर्धन करना तथा उस स्त्रोत को मानवतावादि दिशा देना, यह सारी शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों में आना चाहिए ।

४. विद्यार्थियों के विषय में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखना आवश्यक !

अ. विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकों में ही अटककर न रहें, इस ओर ध्यान दें ।

आ. उन्हें ग्रंथालय में जाना एवं अधिकाधिक ज्ञानकण ग्रहण करने हेतु प्रेरित करें ।

इ. उन्हें अधिक एवं सटीक ज्ञान प्राप्त हो, इस ओर ध्यान दें ।

ई. विद्यार्थियों को ग्रंथ पढने के उपरांत उसपर विचार मंथन करना सीखाएं ।

उ. अपने शिक्षक एवं अन्य विद्यार्थियों के साथ चर्चा करने के लिए उन्हें प्रेरित करें ।

ऊ. शिक्षक केवल पढाता नहीं है अपितु विद्यार्थि में स्वतंत्र रूप से ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता निर्माण करता है ।

५. देश के इतिहास के आरंभिक ३००० वर्ष एकत्रित रूप से महान संस्कृती निर्माण करनेवाले हमारे देश के विद्यार्थी एवं शिक्षक विद्यार्थी इस संस्कृत शब्द की फोड विद्या आणि अर्थिन् अशी आहे. ज्ञान एवं उसे प्राप्त करनेवाला, ऐसा उसका अर्थ है । ऐसे विद्यार्थी एवं शिक्षक भारत में थे । उन्होंने हमारे देश के इतिहास के आरंभिक ३००० वर्षों मेें एकत्रित रूप से एक महान संस्कृती निर्मित की । उसके उपरांत एक सहस्त्र वर्ष के काल में एक प्रकार का ठहराव आने से सर्व ज्ञानप्रवाह कुंठित हो गया । अब हमें इस अवस्था से बाहर आने का प्रयास प्रारंभ करना है ।

६. शिक्षक का पेशा यह सती का वाण है; इसलिए शिक्षकों को ज्ञानार्जन एवं  ज्ञानप्रसार हेतु अपने आपको समर्पित करना आवश्यक !

जो अन्य क्षेत्रों में असफल होते हैं, वे अंत में शिक्षक का पेशा स्वीकारें, ऐसा हमारे शिक्षकों के संबंध में न हो । उत्कृष्ट बुद्धि के लोगों को शिक्षक के पेशे का आकर्षण लगना चाहिए । एक बार इस क्षेत्र में आनेपर उस व्यक्ति को स्वयंपर एवं अपने पेशे के विषय में आत्मविश्वास एवं आत्मीयता लगनी चाहिए । सरकार को भी ‘उत्कृष्ट दर्जे के लोग शिक्षक के पेशे की ओर कैसे आएंगे’, इस पर ध्यान देना चाहिए । ‘बदमाशों के लिए देशभक्ति यही अंतिम आश्रयस्थान है’ (पैट्रिओटिझम् इज दि लास्ट रेफयूज आफ द स्काउंड्रल’), ऐसा इंग्लैंडमें १८ वें शतक में कहा जाता था । उसी ढंग से समाज में ‘सर्व ओर से असफल व्यक्ति ही शिक्षणक्षेत्र में आती हैे’, यह बोध अब भारत में असत्य बनें । शिक्षक का पेशा यह एक सती का वाण/उपायन है । शिक्षकों को ज्ञानार्जन एवं ज्ञानप्रसार हेतु अपने आपको समर्तित करना चाहिए ।

– स्वामी रंगनाथानंद

संदर्भ : मासिक ‘जीवन विकास’, सितंबर २००७