पर्यावरण

अपने आसपास का वातावरण अर्थात् पर्यावरण ! पर्यावरण प्रकृतिद्वारा संतुलित की जाती है । पर्यावरणमें मनुष्य का हस्तक्षेप बढने से, उसी प्रकार उसकी स्वार्थी एवं नियोजन शून्य वृत्ति के कारण संतुलन बिगड जाता है ।मानव का स्वास्थ्य पर्यावरणपर निर्भर करता है । इस कारण पर्यावरण के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना अत्यावश्यक है !

पर्यावरण अस्तव्यस्त होनेके कारण मानवपर भोगनेवाले परिणाम !

प्रदूषण के कारण पर्यावरण अस्त व्यस्त होने के कारण देखेंगे । निसर्ग के पंचमहाभूतोंमें (पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश में) हस्तक्षेप कर संतुलन बिगडने से शारीरिक प्रदूषण होता है । स्वभावदोष एवं अहं के कारण मानसिक प्रदूषण होता है ।

शारीरिक

अ. शरीर की क्षमता न्यून होना : जीवपर पर्यावरण एवं पर्यावरणपर जीव निर्भरहोता है । दोनोंमें से एक का संतुलन बिगड गया, तो उसका परिणाम संपूर्ण सृष्टिचक्रपर होता है । अनिष्ट शक्तियोंद्वारा पर्यावरण के पंचतत्त्व को हानि पहुंचने के कारण मनुष्य के पंचतत्त्वपर भी प्रभाव होकर हमारी स्थूलदेह की क्षमता न्यून होती गई । इस कारण शीघ्र थकान आना, रोग होना, इस प्रकार के स्थूल लक्षण दिखाई देते हैं ।

आ. आयुर्वेदिक औषधि लुप्त होना : वर्तमानकाल में पर्यावरण में तम कणों का प्रमाण बढने के कारण तमोगुण से संबंधित वृक्षों की उत्पत्ति अधिक प्रमाण में हुईऔर सत्वकणों से संबंधित वृक्षों की उत्पत्ति अल्प होते-होते १० प्रतिशतपर आगई । आयुर्वेद के लिए लगनेवाली औषधियां सत्त्वगुण से संबंधित होने के कारण उनकी उत्पत्ति पर्यावरण दूषित होने के कारण अल्प हो गई । इस कारण योग्य उपचार करना असंभव ही हो गया और जीव की क्षमता अल्प हो गई ।

इ. जीव की पंचतत्त्व से संबंधित कर्मेद्रियों की क्षमता अल्प होना : पंचतत्त्व में तमोगुण बढा है, अर्थात् पंचतत्त्व क्षीण हो गया है । इस कारण वर्तमानकालमें पंचतत्त्वमें तमोगुण का प्रमाण अधिक होने के कारण अल्प प्रतिरोधक क्षमतावाले रोगी जीवों की उत्पत्ति का प्रमाण बढ गया है ।

मानसिक

जीव की पर्यावरण से एकरूपता साध्य न होने के कारण मनोमयकोषमें  विद्यमान रज-तम कणों का प्रमाण बढना, जीव का उत्साह अल्प होना, जडत्व बढने के कारण जीवद्वारा रज-तम के अधीन होकर अनिच्छा से कार्य होना, जीव की सहज कृति भी कुछ अंश में निसर्ग के विरोध में होने के कारण जीव के मनोमयकोषमें प्रत्येक बार तनाव निर्माण होना, ऐसे मानसिक दुष्परिणाम हुए हैं।