श्री गोरक्षनाथ (खिस्ताब्द १००० से ११००)

श्री मच्छिंद्रनाथ तीर्थयात्रा करते-करते अनेक दुःखी, पीडितों को सुख का मार्ग दिखाने लगे, उनके दुःख दूर करने लगे । उनके नाम का जयघोष होने लगा । वे चंद्रगिरी गए ।उस गांव में सर्वोपदयाळ नाम का एक वसिष्ठगोत्री गौड ब्राह्मण रहता था । उनकी पत्नी का नाम सरस्वती था । वह अति सद्गुणी थी । पुत्र संतान न होने के कारण वह दुःखी थी ।उनके घर श्री मच्छिंद्रनाथ भिक्षा मांगने गए । सरस्वतीने उन्हें भिक्षा दी, नमस्कार किया तथा विनती की, ‘‘हमें संतती नहीं है, उपाय बताइए ।’’

श्री मच्छिंद्रनाथने उसे सूर्यमंत्र से मंत्रित भस्म देकर कहा, ‘‘ये भस्म रात्रि सोते समय सेवन करो । ये भस्म है, केवल रक्षा नहीं, नित्य उदय आनेवाला यह साक्षात हरिनारायण है । वह तुम्हारे गर्भ में आएगा । तुम्हारे उस पुत्र को मैं स्वयं आकर उपदेश करूंगा । वह जग में कीर्तिमान होगा । सर्व सिद्धि उसकी आज्ञा में रहेंगी ।” श्री मच्छिंद्रनाथजने हेतु निकले तब उसने पूछा, ‘‘महाराज, आप कब आएंगे ?” ‘‘बारह वर्ष के उपरांत लौटूंगा !” ऐसा कहकर वे निकल गए ।

सरस्वतीने वह भस्म आंचल में बांध ली । तदुपरांत वह पडोसी के घर गई । वहां अनेक स्त्रियां थी । सरस्वतीने उनको बताया, ‘‘एक बाबा आए थे । उन्होंने मुझे पुत्र होने हेतु भस्म दी है ।” इसपर सभी हंसकर कहने लगी, ‘‘ऐसे भस्म से क्या बच्चे होते हैं ?”

उन सभी स्त्रियोंने सरस्वती के मन में संदेह उत्पन्न किया तथा उसने अपने घर के पास की गौशाला में गोबर फेंकने स्थानपर वह भस्म फेंक दी ।

बारह वर्ष के उपरांत मच्छिंद्रनाथजी चंद्रगिरी गांव में सरस्वती के घर के सामने जाकर खडे हो गए । उन्हें देखकर सरस्वती बाहर आई । उसने नाथजी को पहचाना । नाथने पूछा ‘‘बच्चा कहां है ?’’ उसने बताया ‘‘मुझे बच्चा हुआ ही नहीं ।”नाथने प्रश्न किया, ‘‘झूठ मत बोल ! उस भस्म का क्या किया ?” सरस्वतीने कहा, ‘‘मैंने वह भस्म गोबर फेंकने स्थानपर फेंक दी । योगीराज, मुझे क्षमा करें!”उसने नाथ के कहनेपर उन्हें वह स्थान दिखाया ।

‘‘हे प्रतापवंत, हरिनारायण, सूर्यसुत यदि तुम गोबर में हो तो बाहर आ जाओ!”‘‘गुरुदेव, मैं यहां हूं । उपलोंका अंबार बडा है, आप मुझे बाहर निकालें ।”मच्छिंद्रनाथजीने तुरंत उपले हटाकर उस बच्चे को बाहर निकाला । वह तेजःपुंज पुत्र बाहर आते ही सूर्य के समान प्रकाश दिखा । सरस्वती को पश्चाताप हुआ ।मच्छिंद्रनाथजी उस बच्चे को अपने साथ ले गए । उसका नाम गोरक्षनाथ रखा । उसे शाबरी विद्या में प्रवीण किया, अस्त्रविद्या में भी कुशल बनाया । योगबल से गोरक्षनाथने चिरंजीवित्व प्राप्त कर लिया था । सिद्ध सिद्धांत पद्धति, अमनस्कयोग, विवेकमार्तंड,गोरक्षबोध, गोरक्ष शतक आदि उनके ग्रंथ प्रसिद्ध हैं ।

शक १७१० तक सभी नवनाथ प्रकटरूप में थे । उसके उपरांत वे गुप्त हो गए ।गिरनार पर्वतपर श्रीदत्तात्रेय के आश्रम में गोरक्षनाथजी रहे । चौरासी सिद्धों से नाथ पंथ का उत्कर्ष हुआ । नेपाली लोग गोरक्षनाथजी को भगवान पशुपतीनाथ का अवतार मानते हैं ।नेपाल में कुछ स्थानोंपर उनके आश्रम हैं । सिक्के के एक बाजूपर उनका नाम भी दिखाई देता है । कहा जाता है, महाराष्ट्र की औंढ्या नागनाथ यह उनकी तपोभूमि है ।

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