श्रीमत् आद्य शंकराचार्यजी (इ.स. ७८८ से ८२०)

भारत वर्ष के प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास में श्रीमत् आद्य शंकराचार्यजी एक महान ज्ञानी और तत्वज्ञ व्यक्तित्व के रूप में ज्ञात हैं । अखिल भारत की एकात्मता की मूर्ति की रचना करनेवाले अद्वैतवादी वैदिक तत्वज्ञानी श्रीशंकराचार्यजीने भरतखंड के चारों कोने में वैदिक धर्म की पताका लहराई । वेदों के आधारपर तथा वेदांतसूुत्रों के आधारपर उन्होंने अपने नए तत्वज्ञान का उपदेश किया । उन्होंने भारत में धार्मिक चारदिवारी खडा करने का ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया ।

पंडित जवाहरलाल नेहरूने ‘डिस्कव्री ऑफ इंडिया’ पुस्तक में श्रीशंकराचार्य के विषय में अत्यंत गौरवपूर्ण उद्गार निकाले हैं । वे कहते हैं – ”आचार्यने विविध प्रकार के मत-मतांतर से त्रस्त हुए भारतीय लोगों में समन्वय कर भारतीय मन को भेद में अभेद देखने की शिक्षा दी । अपने अद्वैत सिद्धांतों द्वारा यह सीख भारतीय स्वीकार करें इसी बात का उन्होंने महान प्रयास किया । इसी प्रकार का कार्य साध्य होने हेतु अनेक पीढियां खर्च करनेपर भी पूरा नहीं होगा, इतना प्रचंड कार्य आचार्यजीने अपने जीवन के केवल बतीस वें वर्ष में साध्य किया । उनकी विचारधारा का प्रभाव आधुनिक भारत में भी उतना ही प्रभावशाली प्रतीत हो रहा है । वे महान तत्वज्ञ, महापंडित, प्रतिभाशाली कवि, समाजसुधारकों में श्रेष्ठ तथा कार्यदक्ष संगठक थे । आचार्यजीने अपना कार्य बौद्धिक, तात्विक और धार्मिक तीनों स्तरपर कर विविध विचारधारा के अंतर्गत एकसूत्रता लाने का प्रयास किया । जनजीवन में प्रचलित पंथ-भेद नष्ट कर सर्व लोगों को ज्ञानद्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है यह यर्थाथ उनके मन में उतार दिया तथा ज्ञानोपासना का मार्ग दिखा दिया ।”

केरल (मलबार) प्रांत में पूर्णानदी के तटपर, कालडी गांवमें इ.स. ७८८ में नंबुद्री द्विज के कुल में इस अलौकिक तथा असाधारण धर्मप्रवर्तक का जन्म हुआ । उनके पिताजी का नाम शिवगुरू था । बचपन में ही पिताजी की मृत्यु हो जाने के कारण उनका लालन-पालन उनकी माता आर्यांबाने किया । अध्ययन एवं अध्यापन की एक उज्ज्वल परंपरा उनके वंश में आगे बढ रही है ।

श्रीशंकराचार्यजीने आठवें वर्ष में सर्व वेदों का अध्ययन पूर्ण किया । मांद्वारा परित्याग लेने की अनुमति प्राप्त कर वे घर से बाहर निकले । विंध्य पर्वत के पास उनकी भेंट गोविंद पूज्य पादाचार्यजीस हुई ।उन्होंने शंकराचार्यजी को उपदेश देकर परित्याग की दीक्षा दी ।आयु के बारहवें वर्ष में उन्होंने सर्व शास्त्रों में प्राविण्य प्राप्त किया । तदनंतर वे काशी गए । वहां उन्होंने पंडितों से प्रतिवाद कर उन्हें अपनी विद्वत्ता से प्रभावित किया; उन्हें प्रतिवाद में जीत लिया, इसी कारण उनकी महानता तथा कीर्ति वृद्धिंगत हुई ।

श्रीशंकराचार्यजीने उपनिषद, गीता और वेदांतसूत्र की प्रस्थानत्रयीपर भाष्य लिखा तथा अपना अद्वैत वेदांत का सिद्धांत प्रस्थापित किया । उसे ‘शांकरभाष्य’ नाम से जाना जाता है । अद्वैत अर्थात् जीव, शिव (ईश्वर) ये दो न होकर एक ही हैं; तथा ब्रह्म चराचर सृष्टि में व्याप्त हैं । इस भाष्य के कारण पुरातन वैदिक संस्कृति की परंपरा पुनरुज्जीवित होकर उसका भारतीय जीवन के अंतर्गत का स्थान अखंड प्रस्थापित हुआ ।

श्रीशंकराचार्यजी की मां बीमार हुई । मां उनकी प्रतिक्षा कर रही थी । उन्हें यह समाचार मिलते ही वे कालडी गए । मां से मिले । उसे अतिशय आनंद हुआ । ”शंकरा, मुझे श्रीकृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त कर दे ।” मां के इच्छा व्यक्त करते ही श्रीशंकराचार्यजीने श्रीकृष्ण की प्रशंसा की । शंख, चक्र, पद्म धारण किए श्रीकृष्ण प्रकट हुए । श्रीकृष्णदर्शन से उनकी मां धन्य हुई ।

अनंतर श्रीशंकराचार्यजीने सर्व भारतभर भ्रमण किया, विभिन्न स्थानों में जाकर पंडितों को हराया । उसमें कुमारिलभट्ट के शिष्य मंडनमिश्रजी से उनका प्रतिवाद हुआ । उसमें भी उन्होंने विजय प्राप्त किया । मंडनमिश्रजी की पत्नी सरस्वती उसी प्रतिवाद में पंच थी । इसीसे उस युग की औरतों की विद्वत्ता के विषय का तथा सामाजिक दर्जा के विषय का अनुमान ज्ञात होता है ।

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