
१८७५ को गोवाके पास सावंतवाडीके बाबूजीपंत गोडेकी २१ वर्षीय कन्या अन्नपूर्णाबाईसे इनका विवाह हुआ । बचपनसे ही वे संस्कृत भाषाके प्रकांड पंडित एवं अति उच्च कोटिके विद्वान थे । प्रतिवर्ष उनकी कीर्ति बढती ही गई । नरसोबावाडी दत्तात्रय देवालयके लिए प्रसिद्ध है । इस क्षेत्रमें आनेके उपरांत वे वासुदेवानंद सरस्वतीजीके नामसे पहचाने जाने लगे । जहां ५०० वर्ष पूर्व श्री नरसिंह सरस्वतीने १२ वर्ष तक निवास किया था । श्री वासुदेवानंद सरस्वतीजीने ‘दत्त महात्म’ नामक ग्रंथ भी लिखा । १८९१ में पत्नीकी मृत्युके उपरांत केवल १३ दिनमें वे संन्यासी बन गए । उन्होंने गुरु श्रीमंत गोंविदस्वामीजीसे संन्यासकी दीक्षा दी ।
( ज्येष्ठ अमावस्या ) अर्थात १९१४ में वे परमात्मासे एकरूप हो गए । उन्हें नर्मदाके तटपर अंतिम विदाई दी गई ।