भक्ति

एक सुंदर युवती चिन्ताग्रस्त बैठी थी । मन में विचारों की भयानक उथल-पुथल चल रही है । उसके सामने दो वृध्द पुरुष मूर्च्छित पडे हैं । उस युवती की दासी उन्हें जगाने का प्रयास कर रही है ।

इतने में, ‘‘नारायण, नारायण’’ कहते हुए नारदमुनि वहां उपस्थित होते हैं । उन्हें देखते ही उस युवती को अत्यन्त आनन्द हुआ है ।

उसने नारदजी को वंदन कर करुणाभरे स्वर में कहा, ‘‘मुनिवर, आप जैसे भगवद् भक्त के दर्शन से मैं धन्य हुई । मेरे इस संकट की घडी में आपकी कृपा होगी, तो मुझे विश्‍वास है कि मेरे सारे दु:ख दूर हो जाएंगे और अच्छे दिन लौट आएंगे !’’

उस युवती की बातों को सुनकर आश्‍चर्यचकित नारदजीने पूछा, ‘‘माता, आप कौन हैं ? ये वृध्द पुरुष आपके कौन लगते हैं, इन्हें क्या हुआ है, इस समय मैं आपकी कौन-सी सहायता कर सकता ? पूरी बात बताइए !’’

उस सुंदर युवतीने अपने विषय में कहना आरंभ किया, ‘‘मेरा नाम भक्ति है । मैं इस पृथ्वीपर सनातन काल से रहती हूं । सामने मूर्छित पडे ये दो पुरुष, ज्ञान और वैराग्य, मेरे सेवक हैं, जिनसे मैं पुत्रवत प्रेम करती हूं और उनका लालन-पालन भी करती हूं ।

हम द्रविड देश के निवासी, कर्नाटक प्रदेश में भी भ्रमण करते थे । जबसे कलियुग आरम्भ हुआ है, तबसे लोग हमसे बात नहीं करते; हमारे बुरे दिन आरम्भ हो गए हैं । लोग स्वार्थ पूर्ति के पीछे पडे हैं । हमारी अर्थात भक्ति, ज्ञान, वैराग्य की किसी को चिन्ता नहीं है । लोग सच्चे ज्ञान को छोडकर झूठे ज्ञानपर विश्‍वास करने लगे हैं ।

मेरी मुक्ति नाम की सखी थी । पहले, लोग उसके लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग करने के लिए तत्पर रहते थे, कोई भी कष्ट उठाने के लिए उद्यत रहते थे । किन्तु, इस कलियुग में लोगों ने उस श्रेष्ठ मुक्ति को ही वैकुंठ भेज दिया और मुक्ति के बदले शक्ति, युक्ति तथा आसक्ति को ही भजने लगे । ऐसी स्थिति में मुझ भक्ति को उस प्रदेश से निकल जाना पडा । उस समय ज्ञान मेरे पीछे बछडे समान लगा रहा और अब बूढा हो गया है । वैराग्यने भी कभी मेरा साथ नहीं छोडा ।

पश्‍चात, हम महाराष्ट्र राज्य में घूमे । वहां हमारे अच्छे दिन बीते । वहांके लोगोंने उस प्राचीन ज्ञान को नया रूप दिया । वैराग्य का थोडा विकास किया और मेरी भक्ति का रसपान किया । हमें आनंद हुआ । प्रतीत हुआ कि महाराष्ट्र वस्तुतः महान् राष्ट्र है !

किन्तु, कलियुग का प्रभाव जैसे-जैसे बढता गया, वैसे-वैसे हमारे लिए बुरे दिन आते गए । लोग पाखण्डी बन गए । उन्हें ज्ञान का गर्व हुआ । ढोंगी वैराग्य फूलने-फलने लगा और दांभिक भक्ति का प्रदर्शन आरंभ हुआ ।

तब हम गुर्जर (गुजरात) प्रांत में रहने चले गए । किन्तु, यहां की स्थिति विचित्र दिखी ! यहां के लोगों को धन ही परमार्थ प्रतीत होता था । धनार्जन में डूबे उन लोगों की दृष्टि से ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का महत्वशून्य था ! वहां हमारे प्रयत्न पूर्णतः विफल रहे ।

पश्‍चात हम इस यमुना के तटपर गोकुल-वृंदावन में आए । भगवान श्रीकृष्ण के निवास से पवित्र बना यह प्रदेश ! किन्तु, यहां भी वही बातें ।

ज्ञान और वैराग्य मुझसे अधिक वृध्द ! किन्तु, ये मेरे दास हैं । ईश्‍वर की कृपासे मैं सदैव युवती हूं । किन्तु, सबलोग मुझे माता मानते हैं । मेरे इन पुत्रों की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती । इनकी मूर्च्छा समाप्त हो और संसार इनसे पुनः लाभान्वित हो, ऐसी मेरी इच्छा है ।

नारदमुनि, आप आए, बहुत अच्छा हुआ ! अब आप ही मुझे मार्ग दिखाएं । हमारा संकट दूर करें और इस माया मोह से भ्रमित संसार को पुन: भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य का महत्वसमझाकर लोककल्याण कीजिए । कलियुग वासियों का कल्याण कैसे होगा, यह बताकर सबको सुखी कीजिए ।’’

उस स्त्री की आपबीती सुनकर नारदमुनि बोले, ‘‘भक्तिदेवी, कलियुग के प्रभाव से ही आप तीनों की यह दुर्दशा हुई है । भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापरयुग में जिस भागवत धर्म को व्यवस्थित किया था, आज वह अस्त-व्यस्त हो गया है । मुझे तो सब ओर इसी प्रकार का दृश्य दिखाई दे रहा है । किन्तु, आज आपको देखनेपर आंखें पूरी खुली हैं ।

अब इस समस्यापर एक ही उपाय है, भागवत धर्म का आचरण यह संसार पुन: करे, ऐसा प्रयत्न संतों और सज्जनों को करना चाहिए ।

बदरीकाश्रम में सनक, सनातन, सनन्दन एवं सनत्कुमार आदि भागवतधर्म के प्रचारक एकत्र बैठे हैं । उनके पास जाकर मैं आपकी सारी बातें उन्हें बताता हूं तथा संसार को भागवत धर्म का महत्त्व समझाने का उपाय बताने की विनती करता हूं । उनकी कृपा से आप -भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य के लिए पुन: अच्छे दिन आएंगे और संसार का कल्याण होकर सब सुखी होंगे ।

इस प्रकार, नारदजी ने भक्ति को शांत रहनेका उपदेश किया । इसपर भक्ति ने कहा, मैं तो शांत रह लूंगी, किन्तु ये जो ज्ञान एवं वैराग्य मरणासन्न अवस्था में हैं, इनका क्या करूं ? कृपया, इनकी देह में चैतन्य का संचार कर, खडा करें ।

उन दो वृध्दों के पास नारदमुनि बैठे । उन्होंने उनके शरीरपर हाथ फेरकर शीतोपचार किया और उनके कान के समीप उच्च स्वर में कहा, ‘‘गीता ! केदांचं सार ! भगवद्गीता पठन करें । उठिए !’’

‘‘गीता’’ शब्द उच्चारते ही वह वृध्द तुरन्त उठ खडे हुए और नारदजी के पैर पकड लिए । भक्ति को आनंद हुआ । उसने नारदजी का आभार माना ।

पश्‍चात, ‘‘नारायण नारायण’’ कहते हुए नारदमुनि सीधे बदरिकाश्रम गए । वहां उन्होंने ऋषि-मुनियों की सभा में वह प्रश्‍न किया । तब, सबने मिलकर, भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार की योजना बनाई । उस योजना के अनुसार सर्व धर्मनिष्ठों को आचरण-संबंधी आज्ञा की । इससे भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य को पुन: संजीवनी मिली ।

उनकी आज्ञा के अनुसार भगवद् भक्तोंने, सज्जनों एवं संतोंने संसार में सर्वत्र कथा-कीर्तन, भजन, पुराण कथन, प्रवचन, पोथी पारायण आदि आरम्भ किया तथा गंगाद्वार के समीप आनंद नामके उपवनमें नारदमुनिने स्वयं पहला भागवत सप्ताह किया । उस उत्सव में अनेक ऋषि-मुनि पधारे थे । पहले वैकुण्ठ लोक में गयी मुक्ति को भी नारदमुनि ने उस भव्य कार्यक्रम में लाया था ।

उस सप्ताह के पश्‍चात नारद आदि पुण्यशील ऋषियों ने भागवत धर्म की महिमा का विस्तार किया । अनेक प्रकार से भक्ति, मुक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य की कथा सुनाकर उनके महत्व का प्रचार किया । इससे भक्ति पावन हुई और पृथ्वीपर सर्वत्र भागवत सप्ताह का आयोजन होने लगा ।