कान्‍हाजी की दर्पण सेवा !

एक गांव में एक माई रहती थी । वह कृष्‍ण की भक्‍त थी । अपने श्‍याम सुन्‍दर श्रीकृष्‍णजी की बहुत मन से सेवा करती थी, वह सुबह उठकर अपने कान्‍हाजी को अत्‍यंत दुलार और मनुहार से उठाती थी और उनका स्नान श्रृंगार करने के बाद उनको दर्पण दिखाती थी । उसके बाद भोग लगाती थी ।

एक बार माई को एक महीने के लिए लंबी यात्रा पर जाना पडा । यात्रा पर जाने से पहले माई ने अपने कान्‍हाजी की सेवा अपनी बहू को सौंपी और बहू को समझाया कि कान्‍हाजी की सेवा में कोई कमी न करना । उनको श्रृंगार के बाद दर्पण दिखाना, इतना अच्‍छा श्रृंगार करना कि वे मुस्‍करा दें ।

माई के जाने के दूसरे दिन से बहू ने सासू मां की आज्ञा के अनुसार कान्‍हाजी की सेवा की । उनको श्रृंगार के बाद दर्पण दिखाया और उसी दर्पण में धीरे से देखने लगी कि ठाकुर जी मुस्‍कराए या नहीं । बहू ने देखा कि कान्‍हाजी तो मुस्‍कुराए ही नहीं । वैसे ही शांत बैठे हुए हैं । तब उसने सोचा कि कहीं मुझसे कान्‍हाजी के श्रृंगार और उनकी सेवा-पूजा में कोई कमी तो नहीं रह गई ।

कान्‍हाजी की पगडी, बंसी और कपडे सब ठीक करके बहु ने कान्‍हाजी को पुन: दर्पण दिखाया और स्‍वयं दर्पण में झुक कर देखने लगी । कान्‍हाजी तो पहले जैसे ही बैठे हैं । एक बार पुनः उसने पोशाक श्रृंगार ठीक किया और दर्पण दिखाया परंतु कान्‍हाजी इतना सब करने पर भी नहीं मुस्‍कराए ।

अब तो बेचारी बहू बहुत डर गई । उसने सोचा कि कान्‍हाजी को उसने ठीक से नहलाया नहीं है, इसलिए वह मुस्‍कुरा नहीं रहे हैं । उसने तुरंत ही कान्‍हाजी के वस्‍त्रों को उतारकर पुन: स्नान कराया । स्नान के बाद कान्‍हाजी को दुबारा से पोशाक पहनाई और श्रृंगार किया और पुनः कान्‍हाजी को दर्पण दिखाया । परंतु ये क्‍या हुआ कान्‍हा जी तो इस बार भी मुस्‍कारा नहीं रहे थे ।

इस प्रकार उसने बारह बार यही कृति दोहराई । सुबह से दोपहर हो चुकी थी । घर का सब काम बाकी पडा हुआ था । उसने न तो कुछ खाया था न ही पानी पिया था । बहुत जोर की भूख प्‍यास लगी थी । किंतु सास के आदेश की अवहेलना करने की उसकी हिम्‍मत नहीं थी ।

तेरहवीं बार उसने ठाकुरजी को पुनः जल से स्नान कराया । इधर कान्‍हाजी सुबह से सर्दी के मौसम में बार बार स्नान करके तंग हो चुके थे । उन्‍हें भी जोर की भूख प्‍यास लगी थी, इस बार फिर से वे वस्त्र आभूषण पहन रहे थे, किन्‍तु मन में सोच रहे थे कि अब मैं क्‍या करूं ?

बहू ने कान्‍हाजी का श्रृंगार होने के बाद उन्‍हें आसन पर विराजमान किया । उसने कान्‍हा जी को दर्पण दिखाने के लिए उठाया ।

इस बार कान्‍हा जी ने मुस्‍कराने का निश्‍चय कर लिया था । जैसे ही उसने दर्पण दिखाया और झुक कर निकट से देखने की चेष्टा की तब श्‍याम सुन्‍दरजी मुस्‍करा रहे थे । उन त्रिभुवनपति की मोहक हंसी को देख कर बहू विस्‍मित हो गई । अब तो वह सारे संसार को भूल चुकी थी ।

थोडी देर के बाद होश में आई तो उसको लगा कि शायद यह मेरा भ्रम होगा । कान्‍हा जी तो हंसे नहीं । यह सोचकर उसने पुनः दर्पण दिखाया ।

कान्‍हा जी ने सोचा कि भोजन पाना है तो मुस्‍कराना ही पडेगा । वे पुनः मंद-मंद मुस्‍कराने लगे । ऐसी हंसी बहू ने पहले नहीं देखी थी । कान्‍हाजी का वह मन्‍द हास्‍य उसके ह्रदय में बस गया था । उस छवि को देखने का उसका बार बार मन हुआ । उसने एक बार पुन: दर्पण दिखाया और कान्‍हा जी को मुस्‍कराना पडा ।

अब तो वह आनंद से फूली न समाई । उसने बहुत प्रेम से कान्‍हाजी को भोग लगाया और आरती की । दिन की शेष सेवाएं भी की और रात्रि को शयन कराया ।

अगले दिन पुनः उसने पहली दिन के जैसे ही ठाकुर जी को स्नान कराया और वस्त्राभूषणों को पहना कर सुन्‍दर श्रृंगार करके आसन पर विराजमान किया और दर्पण दिखाया ठाकुर जी को कल की घटनाओं और भूख का स्‍मरण हो आया ।

ठन्‍डे जल से तेरह बार के स्नान को स्‍मरण करके कान्‍हाजी ने मुस्‍कराने में ही अपनी भलाई समझी । उसने तीन बार ठाकुरजी को दर्पण दिखाया और उनकी मनमोहक हंसी का दर्शन किया । आगे की सेवा भी पिछले दिन के अनुसार पूरी की ।

अब तो कान्‍हाजी प्रतिदिन दर्पण देखते ही मुस्‍कुरा देते । बहू ने सोचा शायद उसको ठीक से श्रृंगार करना आ गया है, वह इस सेवा में निपुण हो गई है ।

एक महीने बाद जब माई यात्रा से लौटी तो आते ही उसने बहू से कान्‍हाजी की सेवा के बारे में पूछताछ की । बहू बोली, ‘माई मुझे एक दिन तो सेवा बहुत कठिन लगी, किन्‍तु अब मैं निपुण हो गई हूं ।

अगले दिन माई ने स्‍वयं अपने हाथों से कान्‍हाजी की सारी सेवा करके श्रृंगार कराया । उसके बाद दर्पण लेने के लिए हाथ उठाया तो कान्‍हा जी स्‍वयं प्रकट हो गए । उन्‍होंने माई का हाथ पकड लिया और बोले, ‘‘माई, मैं तेरी सेवा से प्रसन्‍न तो हूं, परतु दर्पण दिखाने की सेवा तो मैं तेरी बहूरानी से ही करवाऊंगा । तू तो रहने दे ।

माई बोली, ‘लाला ! क्‍या मुझसे कोई भूल हुई ?’ कान्‍हा जी ने कहा, ‘नहीं माई, तुमसे भूल नहीं हुई । परंतु मेरा मुस्‍कुराने का मन तो केवल तेरी बहूरानी के हाथ से दर्पण देखकर ही करता है । अब यह सेवा तू उसी को करने दे ।’

माई ने बहूरानी को आवाज लगाई और उससे सारी बात पूछी । बहू ने बडे सहज भाव से बता दिया, ‘हां ! कान्‍हा प्रतिदिन ऐसे मुस्‍कुराते हैं । केवल पहले दिन उन्‍हें समय लगा था । माई बहू रानी की श्रद्धा, उसकी लगन से और ठाकुरजी के दर्शन से अति प्रसन्‍न हो गई ।

उसे पता चल गया कि उसकी बहू ने अपने प्रेम से कान्‍हाजी को पा लिया है । अब तो वह अपनी बहू रानी को कान्‍हाजी की सेवा सौंप कर निश्‍चिन्‍त हो गई ।

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