राष्ट्राभिमानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ! 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस

आप जानते ही हैं कि १९४७ के पहले हमारा देश भारत पराधीन था अर्थात हमारे भारत देशपर अंग्रेज शासन करते थे । भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अनेक क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया है । उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक क्रांतिकारी थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस । बालक सुभाष बचपन से ही राष्ट्राभिमानी थे । उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश के युवकों को आवाहन कर नारा दिया था कि, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा ।’ उन्होंने ‘आजाद हिन्द सेना’ की स्थापना भी की थी ।

एक बार की बात है कि, शरद ऋतु के समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी । आधी रात में मां प्रभावतीदेवी की नींद खुली, तो उनको सुभाष अपने बिस्तर पर दिखाई नहीं दिए, तब उन्हें सुभाष की चिंता होने लगी । उन्होंने सुभाषचंद्र के कक्ष में जाकर देखा, तो किशोर सुभाष पलंग छोडकर भूमिपर दरी बिछा कर सो रहे थे । यह देखकर उन्हें बडा दुःख हुआ । उन्होंने सुभाष को जगाया और पूछा बेटा, तुम भूमि पर क्यों सो रहे हो ? इस प्रकार भूमिपर सोने से तुमको सर्दी लगेगी और तुम बीमार पड जाओगे ।

सुभाष बोले मां, मैं कष्ट सहने का अभ्यास कर रहा हूं । मुझे बडा होकर बडा कार्य करना है । तब मां ने कहा कि : बेटा, क्या बडा काम करने के लिए भूमिपर सोना एवं कष्ट सहना आवश्यक है ?

सुभाष ने उत्तर दिया, हां मां, सुख-सुविधा में जीनेवाले बडे काम नहीं कर पाते । हमारे ऋषि-मुनि वनों में आश्रम बनाकर रहते थे तथा भूमिपर सोते थे । इसलिए वे महान ग्रंथों की रचना कर पाए । आपने ही मुझे राम एवं कृष्ण के संबंध में बताया है कि, वे विश्‍वामित्र एवं सांदीपनी ऋषियों के आश्रमों में किस प्रकार अपना देवत्व भुलाकर कठोर जीवन-यापन किया करते थे ।

सुभाष बाबू के जीवनपर विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री बेनीप्रसाद माधव का बडा प्रभाव पडा । श्री. बेनीप्रसाद माधव अत्यंत उदार तथा एक सच्चे देशभक्त थे । जब सुभाष बाबू श्री. बेनीप्रसाद माधव के संपर्क में आए तब उनकी आयु केवल ११ वर्ष थी । स्वयं बेनीप्रसाद माधव भी बालक सुभाष की कुशाग्र बुद्धि तथा परिश्रमी वृत्ति से बहुत प्रभावित थे । उन्होंने सुभाष से कहा – ‘तुम जब भी कुछ मुझसे पूछना चाहो, तो मेरे पास किसी भी समय निःसंकोच आ सकते हो ।’ सुभाष तो यही चाहते थे; क्योंकि उनके मन में समाज की दुरव्यवस्था अर्थात समाज की दयनीय स्थिति के विषय में अनेक प्रश्‍न थे । वह साथियों से प्रश्‍न करते थे, परंतु उनका उचित समाधान नहीं हो पाता था । एक दिन सुभाषजी ने अपने प्रधानाचार्यजी से प्रश्‍न किया कि, हम अंग्रेजों के दास क्यों हैं ? क्या हम सदैव ही इनके दास बने रहेंगे और हम कभी स्वतंत्र नहीं थे क्या?

बाबूजी बोले ‘बेटा, भारत पहले से ऐसा देश नहीं है । हम तो संसार में सबसे पराक्रमी और महान थे । हमारे देश में इतना धन था कि दूसरे देशों के लोग इसे सोने की चिडिया कहते थे । रोम, चीन, जापान आदि देशों के लोग यहां ज्ञान प्राप्त करने के लिए आया करते थे । हमारा भारत देश प्राचीन काल में विश्‍वगुरु कहलाता था ।

सुभाष ने पूछा कि फिर हमारा देश पराधीन क्यों हुआ ? तब बाबूजी ने उत्तर दिया हमारा देश आपसी फूट के कारण पराधीन हुआ है ।

दुष्ट विदेशियों ने हमारी सरलता और फूट का लाभ उठाया और हमें पराधीन बना दिया । तब सुभाष बोले कि, ‘मैं इस दास्यता की बेडियों को काटकर फेंक देना चाहता हूं ।’ बाबूजी बालक सुभाष का यह विचार सुनकर चकित हो गए तथा बोले तुम्हारा यह विचार बहुत ही श्रेष्ठ है; परंतु अभी तुम छोटे हो । पहले तुम पढ-लिखकर बडे तथा योग्य बन जाओ तत्पश्‍चात यह प्रयास अवश्य करना ।

सुभाष बोले बाबूजी, मैं भारत माता को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा सकता हूं । तब से सुभाष ने अनेक रातें देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए उसके उपाय सोचने में व्यतीत कर दीं । उन्होंने इतिहास तथा संस्कृत का अध्ययन किया तथा अनेक संस्कृत सुभाषित भाष्य कंठस्थ किए । आगे चलकर, उनके गुरु और बाबूजी की प्रेरणा ने उन्हें बालक सुभाष से भारत का गौरवशाली पुरुष – नेताजी सुभाष चंद्र बोस बना दिया ।

‘ नेताजी सुभाषचंद्र बोस इंग्लैंड में ‘आय.सी.एस.’ की परीक्षा देकर भारत लौट आए । उसके बाद उन्हें एक लिखित परीक्षा देनी पडी । परीक्षा की प्रश्‍नपत्रिका देखते ही सुभाषबाबू एकदम गुस्सा हो गए । उस प्रश्‍नपत्रिका में भाषांतर के लिए एक परिच्छेद दिया हुआ था । उस परिच्छेद में एक वाक्य था, ‘Indian Soldiers are generally dishonest’ अर्थात ‘भारतीय सैनिक सामान्यतः अप्रामाणिक अर्थात बेईमान होते हैं ।’

सुभाषबाबू ने इस प्रश्‍न का विरोध किया । उन्होंने परीक्षक को यह प्रश्‍न निरस्त करने की विनती की । इसपर परीक्षक बोला कि, ‘‘इस प्रश्‍न का उत्तर लिखना अनिवार्य है, जो परीक्षार्थी इस प्रश्‍न का उत्तर नहीं देगा, उसे उच्चपद की नौकरी नहीं मिलेगी ।’’ संचालक का यह उत्तर सुनकर सुभाषबाबू अत्यंत क्रोधित हो गए । उन्होंने वह प्रश्‍नपत्रिका ही फाडकर फेंक दी ।

और वह परीक्षक से बोले कि, ‘‘आग लगे आपकी ऐसी नोैकरी को ! मेरे देशबंधुओंपर लगे इस झूठे आरोप को सहन करने की अपेक्षा मुझे भूखा मरना भी स्वीकार है । ऐसी लाचारी स्वीकारने की अपेक्षा मृत्यु अधिक श्रेष्ठ है !’’ ऐसा कहकर सुभाषबाबू उस परीक्षा केन्द्र से सीधे बाहर निकल गए ।

इससे आपको ध्यान में आया न, अपने स्वार्थ से अपना देश अधिक महत्त्वपूर्ण है । ‘जो अपनी मातृभूमि से प्रेम नहीं कर सकता, वह किसीपर भी प्रेम नहीं कर सकता ।’

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