राजा मोरध्वज की कृष्णभक्ति !

भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बादकी यह बात है । युद्ध के बाद अर्जुन को यह भ्रम हो गया की, वह श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं । अर्जुन सोचते थे की कन्हैया ने मेरा रथ चलाया, युद्ध के समय वे मेरे साथ रहे, इसका अर्थ है मैं ही भगवान का सर्वश्रेष्ठ भक्त हूं । अर्जुन यह भूल गए थे की वे तो केवल भगवान के धर्म संस्थापना का माध्यम थे । अर्जुन के मन की बात जानकर भगवान श्रीकृष्णजी ने उनका अहंकार तोडने का निश्‍चय किया ।

एक दिन श्रीकृष्णजी अर्जुन को अपने साथ वन में ले गए । श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को साधू का वेश धारण करने के लिए कहा और स्वयं भी साधू का वेश धारण कर लिया । उन्होंने वन में एक सिंह पकडा और वे पास के ही एक राज्य में पहुंच गए । वह भगवान श्रीकृष्णजी के परमभक्त राजा मोरध्वज का राज्य था । राजा मोरध्वज दानी थे । उनके पास आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का वे सम्मान करते थे । उनके द्वार पर जो भी आता था, वह कभी खाली हाथ और बिना भोजन किए नहीं लौटता था ।

साधुओं के वेश में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन उस सिंह के साथ राजा के महल के द्वार पर पहुंच गए । दो साधू एक सिंह के साथ आए हैं, यह जानकारी पाकर राजा नंगे पांव दौडते हुए महल के द्वार पर आए । साधुओं के चरणों में नतमस्तक होकर उन्हें आतिथ्य स्वीकार करने के लिए प्रार्थना की । भगवान श्रीकृष्ण ने राजा से कहा की, हम भोज स्वीकार करेंगे; परंतु हमारी एक शर्त है । राजा ने कहा , आप जो भी कहेंगे, वह करने के लिए मैं तैयार हूं ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘राजन्, हम तो ब्राह्मण हैं, हमें कुछ भी खिला देना । परंतु यह सिंह नरभक्षी है । यदि तुम अपने एकमात्र बेटे को अपने हाथों से मारकर इस सिंह को खिलाओगे, तो ही हम तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करेंगे । साधू की शर्त सुनकर राजा मोरध्वज अचंभित हो गए । परंतु राजा के लिए अपना आतिथ्य-धर्म कर्तव्य अधिक श्रेष्ठ था । उसने भगवान से कहा, ‘‘प्रभु ! मुझे यह शर्त स्वीकार है, केवल एक बार अपनी पत्नी से पूछ लेता हूं ।’’

साधू के रूप में आए भगवान से आज्ञा पाकर राजा मोरध्वज रानी के महल में पहुंचे । राजा का मुख उतरा हुआ देखकर पतिव्रता रानी ने राजा से इसका कारण पूछा । राजा ने अतिथी साधू की शर्त रानी को बताई । वह सुनकर रानी के आंखों से अश्रु बहने लगे । परंतु वहे राजा से बोली की, ‘‘आपका वचन पूरा करनेे के लिए मैं अपने सैकडों पुत्र भी अर्पण कर सकती हूं । आप साधुओं को आदरपूर्वक महल में ले आइए ।’’

इधर अर्जुन ने भगवान से पूछा, ‘‘माधव ! आपने महाराज से यह क्या मांग लिया ?’’ श्रीकृष्णजी बोले, ‘‘अर्जुन तुम देखते जाओ !’’

राजा साधू और सिंह को महल में ले गए और उन्होंने भोजन की तैयारी आरम्भ की । साधूओं को अनेक भोग परोसे गए । परंतु उसमें से कुछ भी अर्जुन के गले से उतर नहीं रहा था । राजा मोरध्वज का पुत्र रतनकंवर ३ वर्ष का था । राजाने स्वयं जाकर अपने पुत्र को तैयार किया । उसने भी हंसते हंसते अपने प्राण दे दिए । राजा-रानी ने अपने हाथों से उसका वध किया और सिंह को परोस दिया । भगवान ने भोजन ग्रहण किया । परंतु जब रानी ने पुत्र का आधा शरीर देखा तो वह अपने आंसू नहीं रोकपाई । सिंह को पूरा भोजन न करने से साधूरूपी भगवान को बहुत क्रोध आ गया । वे महल से जाने लगे । राजा-रानी उन्हें रोकने के लिए प्रयास करने लगे ।

उसी समय अर्जुन को यह भान हुआ की, भगवान मेरे अहंकार को तोडने के लिए यह कर रहे हैं । तब वे स्वयं भगवान के पैरोंमें गिरकर विनती करने लगे । उन्होंने भगवान से कहा , ‘‘हे भगवान, आपने मेरे झूठे अहंकार को तोड दिया है । राजा-रानी ने अपना वचन पूरा करने के लिए स्वयं का पुत्र त्याग दिया है और आप रूठकर जा रहे हो । दया करें प्रभु ! मुझे क्षमा करें और अपने श्रेष्ठ भक्त का कल्याण करें ।’’

अर्जुन का अहंकार टूट गया है, यह जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने रानी से कहा, ‘‘महारानी, आप अपने पुत्र को आवाज दें ।’’ रानी ने सोचा, पुत्र तो मर चुका है, अब आवाज देने से क्या होगा ? परंतु साधुओं की आज्ञा मानकर उसने पुत्र रतन कंवर को आवाज लगाई । कुछ ही क्षणों में रतन कंवर हंसते हुए उनके सामने आ गया ।’’ राजा और रानी अपने पुत्र को देख अत्यंत आनंदित हो गए। राजा और रानी की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपने मूल स्वरुप में दर्शन दिया । पूरे महल में भगवान श्रीकृष्णजी की जयजयकार गूंजने लगी । भगवान के दर्शन पाकर राजा मोरध्वज की आंखे भर गई । भगवान ने दोनों को वरदान मांगने के लिए कहा । राजा-रानी ने कहा, ‘‘भगवान, इतना वरदान दें कि अपने भक्त की कभी भी इतनी कठोर परीक्षा न लें, जैसी आप ने हमारी ली है ।’’ भगवान ने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें आशीर्वाद दिया । राजा के पूरे परिवार को मोक्ष प्रदान किया ।

इस प्रकार राजा मोरध्वज की भक्ति से अर्जुन का अहंकार टूट गया । अर्जुन ने भगवान से क्षमायाचना की । बच्चों, मैं ही सबसे अच्छा हूं, अच्छी कृति करता हूं, ऐसा विचार मन में कभी न लाएं । यदि ऐसा अहंकारयुक्त विचार मन में आए , तो तुरन्त भगवान की क्षमा मांगे ।