भक्‍त की पीडा स्‍वयंपर लेनेवाले भगवान श्रीकृष्‍ण !

बच्‍चो गुजरात राज्‍य में श्री द्वारकापुरी के समीप डाकोर नाम का एक गांव है, वहां श्री रामदासजी नाम के भगवान श्रीकृष्‍ण के एक भक्‍त रहते थे । वह प्रत्‍येक एकादशी को द्वारका जाकर भगवान श्रीकृष्‍णजी के मंदिर में जागरण और कीर्तन करते थे । जब वह वृद्ध हो गए, तब भगवान ने उन्‍हें आज्ञा दी, की अब वह एकादशी की रात का जागरण घर पर ही कर लिया करें; परंतु रामदासजी ने भगवान की यह बात नहीं मानी । भक्‍त की दृढ श्रद्धा देखकर भगवान प्रसन्‍न हो गए और बोले, ‘अब तुम्‍हारे यहां आने का कष्ट मुझसे सहन नहीं होता है, इसलिए अब मैं ही तुम्‍हारे घर चलूंगा । आनेवाली एकादशी को अपनी गाडी ले आना और उसे मंदिर के पीछे वाली खिडकी की ओर खडा कर देना । मै खिडकी खोल दूंगा, तुम मुझे अपनी गोद में उठाकर अपनी गाडी में बिठाकर शीघ्र ही चल देना ।’ भगवान श्रीकृष्‍णजी स्‍वयं मेरे घर आएंगे यह सुनकर रामदासजी भावविभोर हो गए और उन्‍होंने भगवान को साष्‍टांग नमन किया ।

प्रभु के बताए अनुसार, भक्‍त रामदासजी ने कान्‍हाजी को घर पर ले जाने की पूरी तैयारी कर ली । कान्‍हाजी ने जैसा बताया था उसी अनुसार जागरण करने के लिए गाडी लेकर आए । सभी लोगों को लगा कि वृद्ध होने के कारण रामदासजी गाडी से आए हैं ।

एकादशी की रात को जागरण हुआ, अगले दिन अर्थात द्वादशी की आधी रात को रामदासजी खिडकी के मार्ग से मंदिर के भीतर पहुंचे । उन्‍होंने कान्‍हाजी के सारे आभूषण उतारकर वहीं मंदिर में रख दिए । रामदासजी तो भक्‍त थे । उनको तो भगवान से सच्‍चा प्रेम था, आभूषणों से उन्‍हें कुछ लेना-देना नहीं था ।

रामदासजी भगवान को गाडी में बिठाकर चल दिए ।

कुछ समय बाद जब पुजारियों ने देखा कि मंदिर में कान्‍हाजी की मूर्ति नहीं है, उनके आभूषण वहीं रखे हुए थे । मंदिर में कान्‍हाजी को न पाकर लोग समझ गए की श्री रामदासजी गाडी लाए थे, वही कान्‍हाजी को ले गए हैं । पुजारियोंने उनका पीछा किया ।

पुजारियों को अपने पीछे आते हुए देखकर श्री रामदासजी ने भगवान से पूछा की अब क्‍या उपाय करना चाहिए ? भगवान ने कहा, ‘मुझे बावडी में रख दो ।’ बच्‍चो बावडी का अर्थ है बडा कुंआ । इसमें सीढियां होती हैं, जिससे कुंए के भीतर तक जा सकते हैं । रामदासजी ने भगवान की आज्ञा के अनुसार उन्‍हें बावडी में रख दिया और निश्‍चिंत होकर गाडी हांक दी । पीछे से आए पुजारियोंने रामदासजी को पकडा और बहुत मार लगाई । उनके शरीर से रक्‍त बहने लगा । ।

रामदासजी को पीटकर पुजारी गाडी की ओर आए और वहां चारों ओर भगवान को ढूंढने लगे, पर वे कही नहीं मिले । तब सभी को पछतावा हुआ तथा वे बोले की इस भक्‍त को हमने बेकार ही मारा ।

इसी बीच उनमें से एक ने कहा, ‘मैंने रामदास को इस बावडी की ओर से आते देखा था । चलो वहां देखते हैं । सभी लोगों ने जाकर बावडी में देखा तो भगवान की मूर्ति वहां मिल गई; परंतु बावडी का पानी खून से लाल हो गया था । लोग चकित हो गए । भगवान ने कहा, ‘तुम लोगो ने मेरे भक्‍त को मारा है । मैं उसे कैसे चोट पहुंचने देता । तुम्‍हारे मारने पर उसको जो चोट लगी और चोट लगने से जो रक्‍त बहा, उन चोट से लगी पीडा को मैंने अपने शरीर पर ले लिया है । इसी कारण से मेरे शरीर से खून बह रहा है । मेरा भक्‍त मेरी आज्ञा से मुझे लेकर जा रहा था । आप सबने उसे बहुत मारा है, अब मैं तुम लोगों के साथ कदापि नहीं आऊंगा । लोग बहुत लज्‍जित हुए और उन्‍होंने भगवान से क्षमा मांगी तथा मंदिर में चलने की प्रार्थना की । तब कान्‍हाजी ने उन्‍हें दूसरी मूर्ति का पता बताया तथा कहा कि उस मूर्ति को मंदिर में स्‍थापित करो अपनी जीविका के लिए इस मूर्ति के वजन का सोना ले लो और वापस जाओ । पुजारी लोभी थे । वे मान गए । मूर्ति को तौलने के लिए तैयार हो गए । रामदासजी के घर पर आकर भगवान ने कहा, ‘रामदास, तुम तराजू बांधकर मुझे तौल दो । रामदासजी ने भगवान की आज्ञा के अनुसार तराजू के एक पलडे में कान्‍हाजी को रखा तथा दूसरे पलडे में पत्नी के कान की सोने की बाली रख दी । भगवान की मूर्ति का वजन उन सोने की बालियों के बराबर निकला । भक्‍त रामदासजी ने वह बाली पुजारियों को दे दी । पुजारी अत्‍यंत लज्‍जित होकर अपने घर को चल दिए ।

बच्‍चो भगवान ने भक्‍त से अपनी एकरूपता दिखाने के लिए ही भक्‍त की पीडा अपने ऊपर ली । धन्‍य हैं ऐसे भक्‍त श्री रामदासजी।