आध्यात्मिक संज्ञाका अर्थ (भाग १)

‘सूक्ष्म’ शब्दके संदर्भमें कुछ संज्ञाओंका अर्थ

जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धिके परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञानके विषयमें विविध धर्मग्रंथोंमें उल्लेख है, उदा.भगवतो नारायणस्य साक्षान्महापुरुषस्य स्थविष्ठं रूपम् आत्ममायागुणमयम् अनुवर्णितम् आदृतः पठति शृणोति श्रावयति स उपगेयं भगवतः परमात्मनः अग्राह्यम् अपि श्रद्धाभक्तिविशुद्धबुद्धिः वेद । – श्रीमद्भागवत, स्कंध ५, अध्याय २६, सूत्र ३८

अर्थ : भगवानका उपनिषदोंमें वर्णित निर्गुण स्वरूप मन एवं बुद्धिके परे है । तथापि जो उनके स्थूल रूपका वर्णन पढता है, सुनता है अथवा सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्तिसे शुद्ध होती है और उसे इस सूक्ष्म रूपका भी ज्ञान अथवा अनुभूति होती है ।

साधना करनेसे सनातनके साधकोंमें श्रद्धा व भक्ति बढनेके कारण उन्हें भी सूक्ष्म रूपका ज्ञान होता है या सूक्ष्मसंबंधी अनुभूति होती है । समस्त धर्मग्रंथोंमें वर्णित वचनोंकी सत्यताकी प्रतीति सनातनके साधकोंको प्रतीति हो रही है । सनातनके विविध ग्रंथोंमें ‘सूक्ष्म’ शब्दसंबंधी संज्ञाका उपयोग किया गया है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ।

१.सूक्ष्म-विश्व : स्थूल पंचज्ञानेंद्रियोंको (नाक, जीभ, आंख, त्वचा तथा कानको) जिसका बोध नहीं होता; परंतु जिसके अस्तित्वका ज्ञान साधना करनेवालेको होता है, उसे ‘सूक्ष्म-विश्व’ कहते हैं ।

२.सूक्ष्म आयामका (related to the suble dimension) कुछ दिखाई देना, सुनाई देना इत्यादि (पंचसूक्ष्मज्ञानेंद्रियोंसे ज्ञानप्राप्ति होना) : कुछ साधकोंकी अंतर्दृष्टि जागृत होती है, अर्थात जो स्थूल आंखोंसे नहीं दिखाई दिखाई देता है, वह उन्हें दिखता है तथा कुछ लोगोंको सूक्ष्म स्तरीय नाद अथवा शब्द सुनाई देता है ।

३.सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र : कुछ साधकोंको किसी विषयसे संबंधित जो अनुभव होता है तथा अंतर्दृष्टिसे जो दिखाई देता है, उसके रेखांकनको (कागजपर बनाए चित्रको) ‘सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र’ कहते हैं ।

४.सूक्ष्म-परीक्षण : किसी घटनाके विषयमें अथवा प्रक्रियाके विषयमें चित्तको (अंतर्मनको) जो अनुभव होता है, उसे ‘सूक्ष्म-परीक्षण’ कहते हैं ।

५. सूक्ष्म-ज्ञानविषयक प्रयोग : कुछ साधक ‘सूक्ष्म आयामसंबंधी बोधक्षमता (ability to understand the subtle dimesion)’ का अभ्यास करते हैं । वे परखते हैं कि ‘किसी वस्तुके विषयमें मन एवं बुद्धिके परे क्या अनुभव होता है’ । इसे ‘सूक्ष्म-ज्ञानविषयक प्रयोग’ कहते हैं ।

‘अनिष्ट शक्तियोंसे साधकोंको होनेवाली पीडा’ इस संज्ञाका अर्थ वातावरणमें अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । साधना करनेपर साधककी ओर अच्छी शक्तियां आकृष्ट होती हैं । साधनाके कारण वातावरणमें अच्छी शक्तिकी मात्रा बढती है तथा अनिष्ट शक्तियोंका सामथ्र्य घटता है । ऐसा न हो, इसलिए अनिष्ट शक्तियां साधकोंकी साधनामें विघ्न डालती हैं । पूर्वकालमें ऋषि-मुनियोंके यज्ञोंमें राक्षसोंने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणोंमें हैं । ‘अथर्ववेदमें अनेक स्थानोंपर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाचको प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ (टिप्पणी १) इसमेंसे एक मंत्र निम्नलिखित है ।

स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनम् ।
त्वं हि देव वन्दितो हन्ता दस्योर्बभूविथ ।।
– अथर्ववेद, कांड १, सूक्त ७, खंड १

अर्थ : सभीमें जठराग्निके रूपमें विद्यमान, विद्युत (बिजली) इत्यादि रूपोंमें संपूर्ण विश्वव्यापी तथा यज्ञमें अग्रणी अग्नि, हम जिन देवताओंकी स्तुति कर रहे हैं, उनतक आप यह हविर्भाग पहुंचाइए । हमसे अर्पित हविर्भागकी प्रशंसा करनेवाले देवताओंको हमारे निकट लाइए तथा हमें मारनेकी इच्छा कर गुप्त रूपमें (सूक्ष्म रूपमें) विचरनेवाले किमीदिन्को (दुष्ट पिशाचका एक प्रकार) हमसे दूर कर दीजिए; क्योंकि दान इत्यादि गुणोंसे युक्त हे देव, हमारेद्वारा वंदन करनेपर आप उपक्षय (घात) करनेवाले यातुधान (राक्षस) इत्यादिका संहार करते हैं; इसलिए आप इसे (राक्षसको) अपने पास बुलाइए अथवा हे स्तूयमान अग्नि, प्रतिकार करने हेतु (प्रतिशोध लेने हेतु) आप इस राक्षसका इस पुरुषमें आवेश कीजिए ।

तात्पर्य यह है कि अनिष्ट शक्तियां साधना करनेवालोंको कष्ट पहुंचाती हैं । इस पीडाके निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपाय वेदादि धर्मग्रंथोंमें बताए गए हैं । सनातनके ग्रंथोंमें कुछ स्थानोंपर ‘अनिष्ट शक्ति’ अथवा ‘आध्यात्मिक पीडा / कष्ट’ जैसे शब्दोंका उपयोग किया गया है । वह इस विषयके संदर्भमें है ।

टिप्पणी १ – संदर्भ : मराठी विश्वकोश खंड १, प्रकाशक : महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मंडल, सचिवालय, मुंबई – ४०० ०३२, संस्करण १ (१९७६), पृष्ठ १९४)

यदि इसमे की कोई आध्यात्मिक संज्ञा समझमें न आए, तो उस विषयमें पाठक कृपया सूचित करें । आगामी संस्करणमें उस संज्ञाको सुस्पष्ट किया जाएगा ।

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