आध्यात्मिक संज्ञाका अर्थ (भाग २)

संकलनकर्ताओंका वैज्ञानिक दृष्टिकोण

इस संकेतस्थलमेकोई भी विषय ‘संविधानके अनुच्छेद ५१ अ’ के अनुसार पाठकके ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’में बाधा लाने हेतु नहीं लिखी गई है । संविधानके अनुच्छेद २५ में व्यक्तिको धर्मपालन एवं धर्मप्रसारका अधिकार दिया गया है । न्यायालयके अनेक न्यायिक निर्णयोंसे यह स्पष्ट हुआ है कि धार्मिक भावना सतही रूपमें वैâसी भी लगे, तब भी उसमें हस्तक्षेप करनेका अधिकार शासन अथवा न्यायालयको नहीं है । यह हस्तक्षेप केवल तभी किया जा सकता है जब सामाजिक शांति, नैतिकता तथा स्वास्थ्यपर कोई संकट आए । इसकाउद्देश्य इन तीनोंको बाधित करनेका नहीं है; अपितु अपने संवैधानिक अधिकारका उपयोग कर अध्यात्मका अभ्यास करने तथा धर्माचरण सिखानेके लिए लिखा गया है ।

श्रद्धापूर्वक धर्माचरण करनेपर धर्मसंबंधी विविध अनुभव होते हैं, यह आजतकका इतिहास है । धर्म और श्रद्धा व्यक्तिगत विषय हैं । इसमेदिए अनुभव भी व्यक्तिगत ही हैं । अतएव न तो वे सभीके लिए लागू होंगे और न ही सभीको वैसा ही अनुभव होगा । इसका उद्देश्य समाजमें अंधश्रद्धा फैलाना अथवा चिकित्सकीय उपचार / वैज्ञानिक दृष्टिकोणका विरोध करना नहीं है । पाठक कृपया ध्यानपूर्वक एवं जांच-परखकर इसका अभ्यास करें । – संकलनकर्ता

संकेतस्थलमेउपयोग की गर्इं आध्यात्मिक परिभाषाओंका अर्थ

आध्यात्मिक उपाय : किसीके मनमें बहुत विचार आ रहे हों, मन एकाग्र न हो रहा हो, मानसिक दृष्टिसे अस्वस्थता अथवा अशांत लग रहा हो, तो उस समय नामजप, ध्यान-धारणा, प्राणायाम, मंत्रजप, प्रार्थना इत्यादि आध्यात्मिक कृत्य करनेपरसाधकका मन स्थिर अथवा प्रसन्न होता है । इन आध्यात्मिक कृत्योंको ‘आध्यात्मिक उपाय’ कहा जाता है ।

संकेतस्थलमेंदिए प्रतिशत : अध्यात्मका विषय वैज्ञानिक परिभाषामें समझाने हेतु अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सम्मोहन उपचार विशेषज्ञ प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजीने (संकलनकर्ताने) कुछ स्थानोंपर विविध घटकोंकी मात्रा प्रतिशतमें दर्शाई है, उदा. थोडा, मध्यम और अधिकको उन्होंने अपने परिमाणके अनुसार क्रमशः १ से ३० प्रतिशत, ३१ से ६० प्रतिशत तथा ६१ से १०० प्रतिशत कहा है ।

साधकोंको स्फुरित ज्ञान, उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा जागृत होनेकी अनुभूति !

सनातनके कुछ साधक अनेक वर्षोंसे साधना (तप) कर रहे हैं; इसलिए उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा जागृत हो गई है और उन्हें विविध विषयोंपर ‘ज्ञान’ स्फुरित हो रहा है । यह अनुभूति ही है । अनुभूति होनेका धर्मशास्त्रीय आधार है –

ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ।
– पातञ्जलयोगदर्शन, पाद ३, सूत्र ३६

अर्थ : आत्मसंयमसे (योगाभ्याससे) जागृत हुए प्रतिभासामथ्र्यके कारण सूक्ष्म, व्यवहित (छुपी हुई) अथवा अतिदूरकी वस्तुओंका ज्ञान होना (अंतर्दृष्टि प्राप्त होना), दिव्य (दैवी) नाद सुनाई देना, दिव्य स्पर्शका बोध होना, दिव्य रूप दिखाई देना, दिव्य रसका आस्वादन कर पाना तथा दिव्य गंधकी अनुभूति होना, ऐसी सिद्धि प्राप्त होती है ।

विश्लेषण : सनातनके कुछ साधकोंकी, श्लोकमें बताए अनुसार प्रतिभा जागृत होकर ज्ञान स्फुरित होना, दिव्य नाद सुनाई देना, सूक्ष्म रूप (सूक्ष्म-चित्र) दिखाई देना इत्यादि विविध प्रकारकी अनुभूतियां हो रही हैं ।

इससे सिद्ध होता है कि साधकोंको स्फुरित ज्ञान हो अथवा योगाभ्याससे साधकोंकी जागृत अंतर्दृष्टि, दोनोंका धर्मशास्त्रीय आधार है ।

ज्ञान प्राप्तकर्ता साधकोंकी नम्रता !

इस संदर्भमें ‘यह ज्ञान मेरा नहीं; साक्षात ईश्वरीय ज्ञान है’, ऐसा संबंधित साधकोंका भाव रहता है । अहंकार न बढे, इसके लिए वे ज्ञानके लेखनके अंतमें अपना नाम न लिखकर अपनी आस्थाके केंद्रका नाम लिखतेहैं तथा कोष्ठकमें यह भी लिखते हैं कि वे स्वयं मात्र माध्यम हैं, उदा. सूक्ष्म-विश्वके ‘एक विद्वान’ (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे) । सूक्ष्म-विश्वके ‘एक विद्वान’ ज्ञान देते हैं, ऐसा श्रीमती अंजली गाडगीळका भाव रहता है ।

किसी विषयसंबंधी लेखन करते समय कष्ट हो, तो उस ज्ञानके अंतमें अपना नाम लिखनेकी अपेक्षा ‘एक मांत्रिक’ ऐसा लिखते हैं तथा कोष्ठकमें स्वयं माध्यम हैं, ऐसा लिखते हैं ।