द्रौपदी की थाली

पांडव जब वनवास में थे तबकी यह बात है । राजा धृतराष्ट्र हस्तिनापुरपर राज कर रहे थे । अत: धृतराष्ट्र के बेटे दुर्योधन के हाथ में राज्य का कारोबार था, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा । एक बार महर्षि दुर्वासा अकस्मात कौरवों के दरबार में आए । यद्यपि वे अकस्मात आए थे, दुर्योधन ने उनका यथोचित आदर सत्कार किया । उनकी स्नानसंध्या, भोजन, निद्रा हेतु अतिउत्तम सुविधा उपलब्ध कराई । अत: दुर्वासा मुनी एकदम तृप्त हुए तथा संतुष्ट होकर दुर्योधन से कहा, ‘‘ मैं तुमपर अत्यंत प्रसन्न हूं । जो चाहो मांग लो । ” इसपर दुर्योधन मन ही मन में प्रसन्न हुआ । पांडवों को मुंह के बल गिराने हेतु इस संधि का लाभ लेना चाहिए, ऐसा निश्चय कर झूठी नम्रता से उसने कहा, ‘‘मुनिवर, मैंने यथा शक्ति आपका आदर सत्कार किया है । उससे आप संतुष्ट हो, यह मेरे लिए बडे आनंद की बात है । तथा इससे मेरा पुण्य भी बढेगा, यह विशेष महत्त्वपूर्ण है । ऐसा ही पुण्य मेरे भाई पांडवों को भी मिले, ऐसी मेरी तीव्र इच्छा है । आप अपना अगला मुकाम वन में रहनेवाले मेरे पांडव भाईयों के यहां करें तथा आप अपने शिष्योंसमेत एक समय के भोजन का लाभ पांडवों के यहां भी लें, मेरी बस इतनी ही इच्छा पूर्ण कीजिए ।” ‘तथास्तु’ कहकर दुर्वासा ऋषि वहां से निकल गए । दुर्योधन को मन ही मन में आसुरी आनंद हुआ । वनवास में रहनेवाले दरिद्री पांडव इतने लोगों को भोजन तथा आदरातिथ्य की व्यवस्था नहीं कर सकेंगे तथा उन्हें दुर्वास ऋषि के बहुचर्चित क्रोध का ऐसा अनुभव होगा कि, पांडवों का गर्वहरण होगा । दुर्योधन मन में खयाली पुलाव पका रहा था ।

दूसरे दिन दुर्वासा ऋषि एवं उनके शिष्यगण जबतक पांडवों की पर्णकुटी पहुंचे तबतक दोपहर के भोजन का समय निकल गया था । वहां पहुंचते ही उन्होंने द्रौपदी से कहा, ‘‘ बेटी भोजन का समय पहले ही निकल गया है । हम नदीपर जाकर स्नानसंध्या कर आते हैं, तबतक तुम भोजन का प्रबंध करके रखो ।” इतना कहकर वे शिष्यगणों केसाथ नदीपर गए । द्रौपदी कुछ बोल न सकी, किंतु वह बुरी तरह से डर गई थी । उनकी पर्णकुटि में अनाज का एक कण भी बाकी नहीं था । ऐसी स्थिति में शिष्यों के साथ आए दुर्वासा ऋषि की भोजन व्यवस्था कैसे करूं, इसकी चिंता उसे सताने लगी । अंत में उसने भगवान श्रीकृष्ण को आर्तता से पुकारा । इस संकट से बाहर आने हेतु बस् श्रीकृष्ण हीअपनी सहायता कर सकते हैं, यह बात वह जानती थी । आश्चर्य की बात, साक्षात्भगवान श्रीकृष्ण वहां प्रगट हुए तथा उन्होंने द्रौपदी से भोजन की ही मांग की । वह सुनकर विवश हुई द्रौपदी ने उन्हें सत्य परिस्थिती बताई । कृष्ण ने कहा, ‘‘ घर में जो भी होगा, ले आओ ।” द्रौपदी ने घरभर में ढूंढा । किंतु उसे कुछ भी नहीं मिला । एक थाली में साग का एक छोटासा पत्ता चिपका हुआ उसे दिखाई दिया । उसने वही श्रीकृष्ण को खाने को दिया । श्रीकृष्ण ने वह खाया और उनका पेट भरने से वह तृप्त हो गए । इतना तृप्त हुए कि, उन्होंने तृप्ति से डकार दिया । उसी क्षण स्नान हेतु गए दुर्वासा ऋषि एवं उनके शिष्यगणों को भी लगा जैसे उनका पेट भर गया है तथा वे डकार देने लगे । अत: पांडवों के यहां वापिस आने का विचार स्थगित कर वे आगे की यात्रापर निकल गए ।द्रौपदी ने कृष्ण परमात्मा की सहायता से संकटपर मात दे दी ।

आज भी कोई गृहिणी घर में साधन सामग्री की कमी होते हुए भी अतिथि का प्रसन्न मुख से आदरातिथ्य कर उन्हें इष्ट भोजन से तृप्त कराती है; तो उसके पास ‘द्रौपदी की थाली ’ है, ऐसा कहा जाता है ।

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