अभिभावकों के मनपर आनेवाले तनाव के कारण


 

१. अभिभावक की परिभाषा

जो अपने बच्चे को उसमें स्थित दोष दूर कर उसमें सदगुण लाने हेतु सहायता करता है, वास्तव में वही अभिभावक । वर्तमान में अभिभावक की परिभाषा क्या होती है ? अधिक से अधिक महंगे कपडों की पूर्ति करना, उन्हें इच्छानुसार खाना खिलाना एवं महंगी पढाई के लिए भेजकर इनके कर्तव्य समाप्त हो जाते  हैं । इससे हम अपने बच्चे को भोगी बना रहे हैं । भोग के आधारद्वारा अनेक  प्रकार के विकार जन्म लेते हैं । भोगी व्यक्ति अनेक दोषों को जन्म देते हैं , तो त्यागी व्यक्ति सदगुणों को । अतः अभिभावकों को अंतर्मुख होकर विचार करना चाहिए कि क्या वे  सच्चे अर्थों में बच्चे को सीख दे रहे हैं ? ‘ बच्चेके जीवन को सदगुणों से परिपूर्णकर उसका जीवन आनंदी करना’, ही सच्चे अभिभावक का धर्म है ।

२. आनंदी अभिभावक में ही आनंदी पीढी खडी  करने की क्षमता

आनंदी अभिभावक ही आनंदी पीढी खडी  कर सकते हैं । बच्चेपर संस्कार डालने हेतु अभिभावक एवं बच्चे में सुसंवाद होना आवश्यक है । स्वयं तनावमुक्त अभिभावक ही अपने बच्चों को तनावमुक्त जीवन जीने की सीख दे सकते हैं, अपने बच्चे से सुसंवाद कर सकते हैं । तनाव में रहनेवाले अभिभावकों से संवाद करने की इच्छा बच्चों को नहीं होती । स्वयं को व्यक्त करनेवाली नई कल्पना, विचार एवं स्वयं की अडचनें, तनाव से भरे अभिभावकों को बताने की इच्छा बच्चों की नहीं होती अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि बच्चे बताना नहीं चाहते ; अतः पहले स्वयं अभिभावक का तनावमुक्त होना आवश्यक है ।

३. अभिभावकों के मनपर आनेवाले तनाव के कारण

३  अ. निरंतर भूतकाल में रहना : निरंतर भूतकाल में रहनेवाले अभिभावक बच्चों से संवाद  नहीं कर सकते । बच्चे निरंतर वर्तमानकाल में जीते हैं; अतः वे निरंतर आनंदी रहते हैं । हम हमारे जीवन में घटे अनेक प्रसंग एवं घटना निरंतर स्मरण करते रहते हैं । ‘पडोसी के साथ हुआ प्रसंग’, ‘ मन को  ठेस पहुंचानेवाली सास की बातें’, ‘कार्यशाला में अधिकारी का डांटना’, अधिकांश लोग इन विचारों के बोझ उठाए फिरते हैं । अर्थात  जब भी बच्चे कुछ बताने के लिए आते हैं, तब हम उनके विचार सुनने की स्थिति में नहीं होते । अतः हमें निरंतर वर्तमानकाल में रहने के लिए सीखना चाहिए ।  भूतकाल के विचारों में रहने के कारण बच्चे एवं हमारा आपस में सुसंवाद होना असंभव ही होता  है ।

३ आ. नकारात्मक बातें करना : ‘आपको कुछ भी नहीं आता, आपका कुछ भी उपयोग नहीं है’, इस प्रकार की नकारात्मक बातें करने के कारण बच्चे के मनपर आघात होते हैं । एक बार स्थूलदेहपर किए आघात भर जाते हैं; परंतु जीव के मनपर हुए आघात कभी भी नहीं भरते । अतः बच्चों के साथ बातें करते समय निरंतर सकारात्मक रहना चाहिए । अपनी बातों से बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए ।

३  इ. अपने अपराध बच्चों के सामने अस्वीकार करना : अपने अपराध स्वीकार करनेपर ही मनपर आया तनाव अल्प होता है  तथा अपने प्रति बच्चों के मन में आदर का स्थान  बनता है । हमारा आचरण देखकर बच्चे भी प्रामाणिकता से  अपराध स्वीकार करना  सीखते हैं । हम अपराध छिपाएं, तो सर्वप्रथम  हमारे मनपर ही तनाव आता है । हमारे सभी अपराध बच्चे जान जाते हैं । ‘माता एवं पिता अपने अपराध स्वीकार नहीं करते, तो मैं क्यो करूं’, ऐसे उनकी धारणा होती है; इससे अभिभावक एवं बच्चों में सूक्ष्म-दूरी  बढती है ।

३  ई. निरंतर बच्चों के दोष देखना : निरंतर बच्चों में स्थित दोष देखनेपर हमारे मनपर तनाव आता है । आप निरंतर बच्चों के गुण देखें एवं उनसे लाड-प्यार के साथ व्यवहार करें । इससे  बच्चे अपने दोष स्वीकारकर   उन्हें दूर करने हेतु प्रयास करते हैं; परंतु अधिकांश अभिभावक बच्चों को निरंतर दोष ही दिखाते हैं । ‘निरंतर बच्चों के  दोष देखना – तनाव के कारण तो निरंतर उनके गुण देखना – आनंद के ’, यह सूत्र आचरण में लाया गया तो निश्चय ही तनाव न्यून होने में सहायता होगी ।

३  उ. स्वयं की छवि  संभालकर बातें करना : व्यवहार में स्थित अभिभावक अपने पद से चिपककर  बातें करते हैं । वे स्वयं को भूलते नहीं हैं । ‘मैं आधुनिक वैद्य हूं’, ‘मैं अभियंता हूं’ अथवा ‘मैं अधिकारी हूं’, यह प्रतिमा जागृत रखकर बातें करने के कारण अभिभावक एवं बच्चों में कदापि  सुसंवाद साध्य नहीं हो सकता । उलटे अभिभावकों को तनाव आते हैं एवं बच्चे सुनते नहीं हैं । ‘अभिभावक’की भूमिका में आकर बच्चों के साथ सहजता से बातें करनी चाहिए । ‘व्यवहार में स्थित  छवि  संभालकर बातें करना-तनाव, एवं बच्चोंके साथ अभिभावक के (मित्र के) नाते बातें करना – आनंद’, यह सूत्र ध्यान में रखना चाहिए ।

३  ऊ. अधिकारवाणी में(प्रभुत्व से) बातें करना :  बच्चों के साथ बातें करते समय यदि हम अधिकारपूर्वक बातें करेंगे, तो उन्हें तनाव आएगा । बच्चों को हमारी बातें अच्छी नहीं लगेंगी । अत: अधिकार की अपेक्षा हमें उनके साथ प्यार से बातें करनी चाहिए । यदि कोई हमें  किसी बात को अधिकार से बताए, तो स्वयं हम भी स्वीकारना नहीं चाहेंगे । । ‘अधिकार से बातें करना – तनाव एवं प्यार से बातें करना – आनंद’, यह सूत्र आचरण में लाना चाहिए ।

३  ए. ‘बच्चों में ईश्वरीय तत्त्व है’, ऐसे विचारों का अभाव : ‘प्रत्येक बच्चे में ईश्वर है’, इसका भान रखकर संवाद करना चाहिए । बच्चे में स्थित ईश्वरीय तत्त्व का आदर कर ही बातें करनी चाहिए । मैं ‘व्यक्ति के साथ बातें नहीं कर रहा हूं, अपितु ईश्वरीय तत्त्व के साथ बातें कर रहा हूं’,  निरंतर ऐसा विचार किया, तो बच्चों के साथ संवाद सहज होकर तनाव दूर होगा । अतएव ‘व्यक्ति के नाते बातें करना – तनाव एवं ईश्वरीय तत्त्व के साथ बातें करना – आनंद’, इस सूत्र की ओर निरंतर ध्यान देना चाहिए ।

३  ऐ. ‘जितने व्यक्ति उतनी प्रकृति’, यह तथ्य ध्यान में रखकर व्यवहार का अभाव : अभिभाव को, सूत्र के अनुसार जितने व्यक्ति उतनी प्रकृति हैं । अपने बच्चे की प्रकृति कौनसी है, उसकी रुचि, शक्ति, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता इन सभी का विचार अभिभावकोंद्वारा होना ही चाहिए । स्पर्धावृत्ति एवं समाज स्थित स्वयं की  छवि के नुसार कुछ अभिभावक बच्चों के साथ व्यवहार करते हैं । इससे बच्चे एवं अभिभावकों में तनाव बढते हैं । ऐसा नहीं हो, इसलिए ‘बच्चे की प्रकृति ध्यान में रखते हुए संवाद साधना-आनंद एवं बच्चे की प्रकृति ध्यान में न रखते हुए संवाद साधना –  तनाव’, यह सूत्र ध्यान में रखना आवश्यक है ।

३  ओ. समजाकर न बताना : बच्चों को प्रत्येक बात समजाकर बतानी चाहिए । सम अर्थात बच्चों के स्तरपर जाकर बताना । बच्चा पहली श्रेणी में है, तो अभिभावकों को उसके स्तरपर जाकर ही संवाद करना चाहिए । इससे बच्चे हमारी बात सुनते हैं; परंतु अभिभावक अपने ही स्तरपर रहते हैं । अतएव बच्चे हमारी बात नहीं सुनते । अभिभावकों के अहंकार के कारण ही ऐसा  होता है । ‘बच्चों के स्तरपर जाकर बातें करना – आनंद एवं अपने स्तरपर रहकर बातें करना – तनाव’, यह सूत्र आचरण में लाया गया, तो तनाव न्यून होता है ।

३  औ. बच्चों के साथ संवाद का अभाव : वर्तमान में बच्चों की समस्या सुननेवाला कोई भी नहीं होता । अभिभावक कहते हैं, ‘हम व्यस्त हैं’, तो अध्यापक कहते हैं, ‘हमें हमारा अभ्यासक्रम पूरा करना  है ।’ अतएव वर्तमान में अधिकतर बच्चों के  मानसिक विकास की गति में अवरोध होता है; इसलिए अभिभावकों के प्रति बच्चों के मन में आदर एवं विश्वास का अभाव रहता है तथा बच्चे सुनते नहीं हैं; इससे अभिभावकों के मनपर तनाव आता है । अनौपचारिक बात करने से मन का मेल होता है; इसलिए बच्चों के साथ प्रतिदिन न्यूनतम १५ मिनट अनौपचारिक बातें करनी आवश्यक है । इससे बच्चे खुले मन से रहते हैं  एवं उनका मानसिक विकास उचित ढंग से हो पाता है । ‘प्रतिदिन बच्चों के साथ न्यूनतम १५ मिनट अनौपचारिक बातें करना – आनंद एवं प्रतिदिन इस अनौपचारिक बैठकका अभाव – तनाव’, यह सूत्र ध्यान में रखकर उसके अनुसार आचरण करनेपर अभिभावक बच्चों के साथ अच्छी तरह संवाद कर सकते हैं ।

३  अं. अपेक्षा करना :  हम बच्चों से अपेक्षा रखकर व्यवहार करेंगे, तो उन्हें  हमारी बातें अच्छी नहीं लगेंगी । उनमें अहं की मात्रा अल्प होने के कारण उन्हें अपेक्षा के स्पंदन ज्ञात होते हैं । उनके साथ हमें निरपेक्षता से व्यवहार करना चाहिए । जहां निरपेक्षता है, वहीं प्यार है । ‘वृद्धावस्था में पुत्र मेरी सेवा एवं देखभाल करेगा,  समाज स्थित मेरी प्रतिष्ठा रहेगी एवं उसमें वृद्धि होगी’, ऐसी अपेक्षा करने की अपेक्षा ‘ईश्वर मेरी देखभाल  करेंगे’, ऐसा विचार करना उचित होगा; क्योंकि ‘अपेक्षापूर्ण व्यवहार – तनाव एवं अपेक्षारहित व्यवहार – आनंद.’

अभिभाव को, उपर्युक्त सभी सूत्र कृत्य में लाने के पश्चात ही हम आनंदी हो पाएंगे एवं इससे हम एक सुसंस्कृत पीढी खडी  कर सकेंगे । ये  सभी सूत्र कृत्य में लाने हेतु हमें कुलदेवता की उपासना करनी चाहिए । (उपासना कथन करना ।)

– श्री. राजेंद्र पावसकर (अध्यापक), पनवेल