बच्चों में स्थित हिंसा तथा राष्ट्रवाद

प्रस्तावना

कुछ वर्ष पहले चेन्नई के एक छात्रद्वारा अध्यापिकापर आक्रमण करने की घटना से केवल तमिलनाडु में ही नहीं, अपितु देशभर में अपना भावक आदर्श नागरिक बनेगा, अभिभावकों को इसकी चिंता हो रही है। अत्यंत निराशा के कारण बच्चे हिंसाचार की ओर मुड रहे हैं, ऐसा कहा जा रहा है। तीन घंटे की लिखित परीक्षा के माध्यम से गुणवत्ता को सिद्ध करते हुए उच्चतम स्थान तक पहुंचने की आतंकी प्रतियोगिता, यह निराशा का एक बहुत बडा कारण है।

अध्यापिकापर विद्यार्थी का आक्रमण

चेन्नई के सेंट मेरी -इंडियन हाइस्कूल में ९ फरवरी को एक विद्यार्थी ने चाकू से अपनी अध्यापिका की हत्या कर दी। कारण था कि अध्यापिका ने छात्र की प्रगति पुस्तिकापर (रिपोर्टकार्डपर) उसके अध्ययन में कमजोर होने के विषय में टिप्पणी की थी। इस कारण उसे दुख पहुंचा था। उसने तीन दिनों तक अपने बैग में चाकू को छिपाकर रखा था। लडका धनवान परिवार का होगा, क्योंकि वह चारपहिया गाडी से विद्यालय आता था। वह सशक्त है; किंतु अध्ययन में ध्यान देना कदाचित उसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण नही लगता होगा। इस विद्यालय ने केवल सौ वर्ष पूर्ण किए हैं ऐसा नहीं, अपितु गुणवत्ता के बलपर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए अनेक अच्छे विद्यार्थियों का निर्माण किया है। यह विद्यालय डॉन बॉस्को शिक्षा संस्थान की ओर से चलाया जाता है। अध्यापिका का नाम उमा महेश्वरी है तथा वह चालीस वर्षों की हैं। विद्यालय में विद्यार्थी तथा सहअध्यापकों के साथ उनके अच्छे संबंध हैं ऐसा सभी कहते हैं। उनका अध्यापन भी अच्छा था तथा विद्यार्थियों के साथ उनका आचरण भी समझदारी का था। उस दिन तीसरी घंटी में हिंदी की कक्षा में कुर्सीपर बैठे समय छात्र ने कक्षा में प्रवेश करते ही उस अध्यापिकापर आक्रमण कर उनकी गर्दनपर तथा पेट में चाकू से जोरदार वार किए जिससे कक्षा में ही अध्यापिका की मृत्यु हो गई।

निराशा से हिंसा की ओर अग्रसर होना

इस घटना से केवल तमिलनाडु में ही नहीं, अपितु देशभर में सर्वत्र जहां अपना भावक आदर्श नागरिक कैसे बनेगा, अभिभावकों को इसकी चिंता है, ऐसे सभी स्थानोंपर चिंता का वातावरण उत्पन्न हुआ है। अत्यंत निराशा एवं ऊंची अपेक्षा के कारण बच्चे हिंसा की ओर मुड रहे हैं, ऐसा दिख रहा है। तीन घंटे की लिखित परीक्षा के माध्यम से गुणवत्ता को सिद्ध करते हुए उच्चतम स्थानतक पहुंचने की प्रतियोगिता इस निराशा का एक बहुत बडा कारण है। सभी प्रकार की सुखसुविधाओं से युक्त विलासी जीवन अपने भावकों को मिले, अभिभावकों के अंतर्मन में ऐसी इच्छा मूल पकडती है तथा वे उसी दृष्टि से भावकों का अभ्यासक्रम सुनिश्चित करते हैं। सुबह से राततक विद्यालय-महाविद्यालय में जो सिखाया जाता है पुनः उसे ही सीखने के लिए निजी वर्ग, उसके अतिरिक्त खेल तथा कला इन में प्रत्येक प्रकार की साधना करने हेतु स्वतंत्र वर्ग जैसे व्यस्त कार्यक्रम संपूर्ण दिन के अभ्यासक्रम में सम्मिलित किए जाते हैं। उच्चतम स्थानतक पहुंचने की अपने अभिभावकों की तीव्र अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने तथा समाज में अपनी प्रतिष्ठा (क्षमता) नष्ट होने के भय से उत्पन्न इस तनाव के प्रभाव में विद्यार्थियों की भयंकर खींचतान होती है। उससे उनकी प्रतिमा को ठेस पहुंचते ही उनका संतुलन खो जाता तथा स्वयं को शांत करने के लिए उग्रता की ओर जाएं, ऐसा उनको लगने लगता है।

कुछ दृढ संकल्पनाओं को त्यागने की आवश्यकता

आज विद्यार्थी स्वयं को जितना असुरक्षित मानते हैं, उससे कहीं अधिक अभिभावक स्वयं को असुरक्षित समझ रहे हैं। कदाचित विद्यार्थी अपने भविष्य के विषय में अनिश्चित होंगे; किंतु अभिभावकों के समक्ष उनके अस्तित्व का ही प्रश्न उत्पन्न हो गया है। अपने बच्चों के जीवन में असंबद्ध होकर उनका पालन-पोषण करना तथा बिना शिकायत उनकी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करना इसके परे निकट भविष्य में उनके साथ अपना भावुक नाता रहेगा अथवा नहीं, अभिभावकों में इसका भय व्याप्त हो गया है। यदि इस प्रश्न का समाधान ढूंढना है, तो हमारी कुछ दृढ संकल्पनाओं को हमें त्यागना होगा। छोटे बच्चे निष्पाप होते हैं एवं उनके तथा बडों के विश्व में बहुत अंतर होता है, ऐसा हम मानकर चल रहे हैं। छोटे बच्चे स्वप्नों के विश्व में रहते हैं, जबकि बडों को सदैव प्रखर वास्तविकता से संघर्ष करने की आवश्यकता के कारण कभी-कभी उन्हें झूठ का सहारा लेकर आचरण करना पडता है। नीति की तुला टेढी पकडनी पडती है। घरगृहस्थी ठीक कैसे चले इसलिए थोडी असभ्यता से भी आचरण करना पडे तो ठीक है परंतु इस कृत्रिमता की आंच अपने निष्पाप भावकों को ना लगे अभीतक अभिभावक इसका ध्यान रखते थे; परंतु अब परिस्थिति में बहुत परिवर्तन आया है, बच्चों का बचपन समाप्त हो चुका है तथा प्रौढता की दुनिया में उनका प्रवेश तीव्र गति से हुआ है। भाव कों तथा अभिभावकों के जीवनक्रम में गुणात्मक अंतर बहुत नहीं रह गया है, फिर भी जो कुछ अंतर है, वह भयानक है तथा वह अंतर यह है कि जिस जीवन को अभिभावक प्रौढता में व्यतीत कर रहे हैं उसे बच्चे किशोरावस्था में ही व्यतीत कर रहे हैं।

भावक तथा अभिभावक में दूरी बढना

पहली बात यह कि दोनों के लिए मनोरंजन के साधन एक ही हैं। उनका आनंद दोनों परस्पर निकट बैठकर लेते हैं। दूरचित्रवाणीपर होनेवाले मनोरंजनप्रधान धारावाहिकों का आनंद दोनों परस्पर निकट बैठकर ही लेते हैं। इन धारावाहिकों से संबंधित व्यक्ति स्वतंत्रता के नामपर छुद्र स्वार्थ हेतु परस्पर एक दूसरे की बलि लेते हुए ही दिखाए जाते हैं। तथा संतुलित विचारों से परे लेखक, निर्देशक एवं निर्माता अनिर्बंध स्वतंत्रता लेते हुए दिखते हैं। इस कारण परिवार व्यवस्था टिकने के स्थानपर टूटने का संस्कार होता है। छोटे बच्चों के लिए पश्चिमी देशो में जो कथारूप लोकप्रिय धारावाहिक बनाए जाते हैं, उनमें होनेवाले संवादों का हिंदी में उच्चारण कर हमारे यहां दिखाए जाते हैं। उससे हमारे अंदर उत्तेजना का प्रादुर्भाव होता है। आवश्यकता हो अथवा न , बडों के प्रत्येक वक्तव्य की ओर आशंका से देखा जाता है तथा उसे चुनौती दी जाती है। उससे दूरी बढती है; किंतु जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि इस अंतर को समयपर मिटाने हेतु अभिभावकों के पास समय नहीं होता जिससे दूरियां बढती ही जाती हैं।

बच्चों का विषैले वातावरण में विकसित होना

संगणक की सहायता से बच्चे स्वयं का अध्ययन कर रहे हैं। यह अच्छी बात है; किंतु इससे अभिभावकों की उपयोगित् ज्ञान में रूपांतरण करने हेतु उसका अन्वय लगाना तथा उसका अर्थ बताना यह छोटासा कार्य अभिभावकों को करना पडेगा। यह अत्यंत कष्टदायी है; किंतु यह करना ही होगा। तीसरी बात वातावरण की है। वातावरण में पूर्णरूप से भ्रष्टाचार व्याप्त है। यह भ्रष्टाचार वैचारिक, मानसिक तथा आचरण का है। इस देश में हिंदु के रूप में हम अधिकार से जी ही नहीं सकते। हमें यदि जीवन व्यतीत करना है, तो जो-जो हिंदु के रूप में आवश्यक है, उससे जो परिस्थिति उत्पन्न होती है उसका तत्क्षण त्याग करना होगा, ऐसी भयंकर निराशा की भावना कांग्रेसी संस्कृतिद्वारा हिंदुओं के मन में तीव्रता से गहराई तक डाली गई है। उसके कारण समूचे देश का वातावरण, जिसे पूर्ण रूपेण हिंदु विचारों से संचारित होना आवश्यक था, वह न होकर बडा अंतराल उत्पन्न हो गया है। आक्रमक इस्लाम इस अंतराल की पूर्ति कर रहा है। वैचारिक तथा मानसिक स्तरपर महायुद्ध आरंभ है। भ्रांतराष्ट्रवाद की कल्पना तथा अहिंसा व्रत का पालन, इस कारण हिंदुओं को दुर्बल एवं अक्षम मान लिया गया है। परिणामस्वरूप यह युद्ध एक ही दिशा से प्रारंभ है। हिंदुओंपर युद्धबंदी होने से उन्होंने उनकी सभी उर्जा राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार के इस एकमात्र उद्योग में लगाई है। भारत में प्रत्येक मनुष्य को भ्रष्टाचार करने को प्रवृत्त किया जाता है। कोई भी छोटा-बडा व्यवहार हो, रिश्वत दिए अथवा लिए बिना वह पूर्ण नहीं होता, यही आदत हम भारतियों को लगी है। हमारे बच्चे ऐसे ही वातावरण में विकसित हो रहे हैं।

बच्चोंपर चित्रपट के नायक-नायिकाओं का परिणाम

प्रत्येक मनुष्य में प्रतिकार, संघर्ष तथा युद्ध की अंतस्थ ऊर्जा होती है। इस्लामी आतंकवाद सबसे बडा शत्रु होकर भी उसकी निंदा करनेपर प्रतिबंध होने से इस ऊर्जाने भ्रष्टाचार का मार्ग ढूंढा। संघर्ष की प्रेरणा का उससे शमन नहीं हो रहा था। उसका शमन होने हेतु आंतरिक पारिवारिक हिंसा का मार्ग सामने आया। चेन्नई की घटना यही बताती है कि निंदा, मतभेद अथवा क्रोध व्यक्त करने के सभ्यतापूर्ण मार्ग का अवलंबन करते समय हमारे राजनेता, चित्रपटके नायक-नायिका, विचारशील नहीं दिखते। उसका दुष्प्रभाव अनुकरणशील बच्चोंपर हो रहा है। अन्य कोई विचार करे अथवा न करे; किंतु इस परिस्थितिपर विजय प्राप्त करने हेतु हिंदुत्व संगठनों को अपनी कार्यशैली बच्चों को प्रभावित करने हेतु गतिमान तथा चित्ताकर्षक करनी होगी।

लेखक : श्री. अरविंद विठ्ठल कुळकर्णी

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात