अभिभावक

१. व्याख्या

पा : पवित्रता का स्वपालन कर स्वयंपर आधारित घटकों का पालन करानेवाला
ल : लक्ष्यभेदी विचारसे  स्वकर्तव्य को गंभीरता से पूर्ण करनेवाला
क : कल्पवृक्ष की भांति अपनी संतान को आधार देकर कर्तृत्ववान बनानेवाला

२. विशेषताएं

अ. अभिभावक ही बालक के जीवन का प्रथम मित्र
आ. अभिभावक, अर्थात संतान के जीवन के प्रत्येक सुख-दु:ख का एकमात्र मूल घटक (संत ज्ञानेश्वर के माता-पिता, जीजामाता)

३. पूर्वकाल के आदर्श अभिभावक

स्त्रियों को जीजाबाई की भांति अपने बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए ! : स्त्रियों को जीजाबाई की भांति बालकोंपर संस्कार करने चाहिए, तभी बच्चे सुसंस्कारित होंगे । राष्ट्र एवं धर्म की घुट्टी पिलाकर जैसे जीजामाता ने  शिवाजी को घडा, वैसे सभी स्त्रियों को अपने बालकोंपर ध्यान एवं समय देकर उन्हें संस्कारित करना चाहिए ।

४. आजकल के अभिभावक

काल के अनुसार अभिभावकों में हुए परिवर्तन
१. वैचारिक
२. बौद्धिक
३. सामाजिक

४ अ. संस्कार की अपेक्षा चाकरी को अधिक महत्त्व देनेवाले अभिभावक

आजकल अभिभावक कहते हैं, `हमें चाकरी (नौकरी) करने के पश्चात समय ही नहीं मिलता, ऐसे में हम बच्चोंपर ध्यान कैसे देंगे ?’ हम स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं बढा लेते हैं । उसके पश्चात अधिक धन की आवश्यकता पड जाती है । इस कारण घर में माता-पिता दोनों ही चाकरी करने लगते हैं ।

४ अ १. बच्चों को शिशुग्रह (क्रेश) में रखना

आज अधिकांश अभिभावक चाकरी के लिए बाहर जाते हुए अपने बच्चों को शिशुग्रह में रखते हैं । इस कारण बच्चों को माता-पिता का सान्निध्य अत्यल्प मिलता है ।

४ अ २. बच्चों को अभ्यासवर्ग में रखना
कुछ अभिभावक धन के बलपर बच्चों के लिए अभ्यासवर्ग जैसे माध्यमों का उपयोग कर बच्चों के प्रति अनदेखी करते हैं । धन के बलपर बच्चों में सद्गुण नहीं संस्कारित किए जा सकते ।

४ अ २ अ. अभ्यासवर्ग में भेजने के दुष्परिणाम

संतान में माता-पिता के प्रति प्रेम न होना : अभ्यासवर्गद्वारा बच्चों को अच्छे अंक तो मिल सकते हैं; परंतु उनपर संस्कार नहीं किए जा सकते तथा उनकी भावनिक भूख भी नहीं मिटाई जा सकती । इसी कारण बालकों को माता-पिता के प्रति प्रेम नहीं लगता, देश तथा धर्म के विषय में प्रेम लगना तो दूर ही रहा !

४ आ. अपनी संतान को समय न दे पानेवाले अभिभावक

कुछ अभिभावक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, तो कुछ केवल समय बिताने के लिए चाकरी करते हुए दिखाई देते हैं । आजकल के कुछ अभिभावक तो पार्टी में, तो कुछ मनोरंजन के अन्य साधनों में ही रमे होते हैं । बालकों की बातें सुनने के लिए उनके साथ कोई नहीं होता । बालकों को  प्रेम और माता-पिता की आवश्यकता रहती है  ।

४ आ १. अपनी संतान को समय न देने के दुष्परिणाम
४ आ १ अ. मानसिक दृष्टि से दुर्बल बनना
आज बालकों की समस्या सुनने के लिए न तो अभिभावकों के पास समय है, न शिक्षकों के पास । ऐसे में बच्चों की कौन सुनेगा ? कभी समय के अभाववश, तो कभी-कभी उसके ज्ञान के अभाव में बालकों को अभिभावकों का सान्निध्य नहीं मिलता । उसकी यह मानसिक व्यथा उसका मन दुर्बल बनाती है । इस कारण बालक चिडचिडा हो जाता है, मानसिक दृष्टि से त्रस्त होता है तथा पढाई में पीछे पड जाता है । ऐसे में अभिभावक उसे अभ्यासवर्ग में भेजने का पर्याय ढूंढते हैं ।

४ आ १ आ. राष्ट्र को सक्षम पीढी न मिलना
बच्चे मानसिक दृष्टि से दुर्बल बनने के कारण राष्ट्र को सक्षम पीढी नहीं मिलती ।

४ इ. अभिभावकों का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण सदोष होना

४ इ १. संस्कार की अपेक्षा परीक्षा में मिलनेवाले अंक महत्त्वपूर्ण लगना
आजकल के अभिभावकों की दृष्टि से शिक्षा का महत्त्व बालकों को मिलनेवाले अंकोंतक सीमित रह गया है । शिक्षा के कारण बालकों के आचरण में होनेवाले परिवर्तन तथा उनपर होनेवाले अच्छे संस्कार की अपेक्षा बच्चों को मिलनेवाले अंक ही उनकी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं । उनका यह दृष्टिकोण ही दोषपूर्ण है, जो परिवर्तित होना चाहिए । `शिक्षा, अर्थात सुसंस्कार का संवर्धन तथा विकास ।’ `शिक्षा, अर्थात मनुष्य की भांति जीना सीखना ।’ यह दृष्टिकोण ही आज अभिभावक भूल गए हैं । `मेरा बालक  चिकित्सक (डॉक्टर) अथवा अभियंता बने । वह बहुत धन कमाए’, यही उनकी इच्छा होती है । `मेरा बेटा प्रथम मनुष्य की भांति जीना सीखे, उसपर उचित संस्कार हों, ऐसा अभिभावक नहीं सोचते । इस कारण जैसे बालकों को परीक्षा में मिलनेवाले गुणों का समालोचन किया जाता है, वैसा समालोचन बालकों के गुणों का नहीं किया जाता । फलतः बालकों को परीक्षा में मिले अंक ही महत्त्वपूर्ण लगते हैं ।

४ ई. अधिक अंक, अंकों की स्पर्धा, धन, कैरियर यही जीवनविषयक तत्त्वज्ञान होना
भारतपर राज्य करनेवाले अंग्रेजों ने राष्ट्राभिमानी एवं धर्माभिमानी नागरिकों का निर्माण करनेवाली उज्ज्वल `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ नष्ट कर दी । तबसे धर्माभिमानी हिंदु का निर्माण करनेवाला मुख्य स्रोत ही मिट गया । स्वातंत्र्योत्तरकाल में भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव निरंतर बढता  ही गया तथा अधिकांश समाज अपने बालकों को अंग्रेजी शिक्षा देने की स्पर्धा में उतर गया । (आजकल के अधिकतर अभिभावकों का जीवनविषयक तत्त्वज्ञान पश्चिमी संस्कृतिपर आधारित तथा मनोरंजनपरक बन गया है । अतः उनकी संतानपर भी उन्हींके विचारों के अनुरूप कृत्य करने के संस्कार होते हैं । अधिक अंक, अंकों की स्पर्धा, प्रत्येक वस्तु की स्पर्धा, पैसा, उसके लिए कैरियर यह अभिभावकों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बन गया है । पश्चिमी संस्कृति का आक्रमण एवं स्वसंस्कृति का विस्मरण, इस कारण आजकल के लाडले सुनते नहीं; ऐसा चित्र प्रायः सर्वत्र देखने मिलता है । इस कारण अभिभावक उन्हें विविध प्रकार की रुचियों में (शौक में) तथा अभ्यासवर्ग में व्यस्त रखते  हैं । उनपर सुसंस्कार हों, ऐसे बहुतेरे सुशिक्षित अभिभावकों की आंतरिक इच्छा होती तो है; किंतु ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, यह उन्हें ज्ञात नहीं होता । अतः अब  ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे अंग्रेजों के दिखाए भोगवाद की ओर जानेवाली पीढी गढने का बीडा आज के अभिभावकों ने उठा लिया है ।

४ उ. धर्मशिक्षण से केवल उच्चशिक्षण, इस अधःपतन की ओर अग्रसर भारतीय शिक्षण का प्रवास !

४ उ १. प्राचीनकाल की गुरुकुल शिक्षणपद्धति में राष्ट्राभिमानी पीढी बनाने की शक्ति होना

प्राचीनकाल में `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ भारत की खरी पहचान थी । धर्मधुरंधर एवं राष्ट्राभिमानी पीढी का सृजन करने की शक्ति इस पद्धति में है – यह अंग्रेजों को ज्ञात होते ही उन्होंने मॅकाले को भारत में लाकर `गुरुकुल शिक्षणपद्धति’ नष्ट कर डाली । मॅकाले के बोए अंग्रेजी शिक्षण के विषैले बीजों का बडा  वृक्ष बनाया । हिंदु नया वर्ष कब से आरंभ होता है ? हमारा प्रमुख धर्मग्रंथ कौन-सा है ? हिंदु धर्म के प्रमुख देवता कौन एवं उनका कार्य क्या है ? मनुष्यजन्म का ध्येय क्या है ?, ऐसे बहुतेरे मौलिक प्रश्नों के उत्तर आज के युवकों को देना संभव नहीं, यह सत्य दुर्भाग्य से हमें पचाना ही होगा ! हिंदु धर्म के मूल्य आचारण में लाना जीवन का खरा सार है तथा अंग्रेजों का ज्ञान हमें हिंदु धर्म से दूर ले जा रहा है, इसका ज्ञान ही हमें नहीं होता, यही शोकांतिका है !

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