शिवाजी महाराज की गुरुभेंट

समर्थ रामदास स्वामीजी की ख्याति सुननेपर छ. शिवाजी महाराजजी को उनके दर्शन की लालसा निर्माण हुई । उनसे मिलने के लिए वे कोंढवळ गए । वहां भेट होगी इस आशा से सायंकालतक रुके, तब भी महाराजजी की स्वामीजी से भेंट नहीं हुई । तत्पश्चात प्रतापगढ आनेपर रात में नींद में भी महाराजजी के मन में वही विचार था । समर्थ रामदास स्वामीजी जानबूझकर महाराजजी से मिलना टाल रहे थे । ऐसे ही कुछ दिन निकल जानेपर एक दिन समर्थजी के दर्शन की लालसा अत्यधिक बढने से वे भवानीमाता के मंदिर गए । उस रात शिवाजी महाराजजी वहांपर ही देवी के सामने निद्राधीन हो गए ।  रात में स्वप्न में उन्हें पैर में खडांऊ, देहपर भगवा वस्त्र, हाथ में माला, बगल में कुबडी ऐसे तेजस्वी रूप में समर्थ रामदास स्वामीजी के दर्शन हुए । छ. शिवाजी महाराजजी ने उन्हें साष्टांग नमस्कार किया । समर्थजी ने उनके सिरपर हाथ रखकर उन्हें आशिर्वाद दिया । नींद में से जागनेपर महाराजजी ने देखा तो उनके हाथ में प्रसाद के रूप में नारियल था ।  उस समय से वे समर्थ रामदास स्वामीजी को अपने गुरु मानने लगे ।

आगे छ. शिवाजी महाराजजी ने अत्यधिक पराक्रम करनेपर समर्थ रामदास स्वामीजी ने स्वयं शिंगणवाडी प्रत्यक्ष आकर महाराजजी को दर्शन दिए । शिवाजी महाराजजी ने उनकी पाद्यपूजा की । समर्थजी ने उन्हें प्रसाद के रूप में एक नारियल, मुठ्ठीभर माटी, लीद एवं पत्थर दिए । उस समय महाराजजी के मन में आया कि़, ‘हमें राज्यकारभार का त्याग कर समर्थजी की सेवा करने में शेष आयु लगानी  चाहिए । समर्थजी महाराजजी के मनका यह विचार समझ गए और उन्होंने कहा ‘राजा, क्षत्रिय धर्म का पालन कीजिए । प्राण जानेपर भी धर्म का त्याग न करें । प्रजा के रक्षण के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, वह छोडकर यहां सेवा करने के लिए न रहें । मेरा केवल स्मरण करनेपर भी मैं आपसे मिलने आऊंगा । सुख से, आनंद से राज्य कीजिए’ । तत्पश्चात् समर्थजी ने उन्हें राज्य करने की आदर्श पद्धति समझाई । समर्थजी ने शिवाजी महाराजजी को उनके कल्याण के लिए नारियल दिया था । सर्वथा संतुष्ट एवं तृप्त मन से छ. शिवाजी महाराजजी राज्य करने लगे । महाराजजी ने माटी अर्थात पृथ्वी, पत्थर अर्थात गढ जीता एवं लीद अर्थात अश्वदल से भी समृद्ध हो गए । गुरु के कृपा प्रसाद से शिवाजी महाराजजी को किसी वस्तु का अभाव नहीं रहा ।

छ. शिवाजी महाराजजी ने विदेशी शत्रुओं का नाश करके स्वराज्य की स्थापना करने का जो कार्य आरंभ किया था उसपर समर्थजी को अत्यधिक अभिमान था । वे लोगों को छत्रपतीजी के कार्य में सहायता करने तथा शक्ति संपादन करके स्वराज्य एवं धर्मरक्षण के लिए लडने का उपदेश करते थे ।  छ. शिवाजी महाराजजी की समर्थजी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी । अनेक प्रसंगों में महाराजजी समर्थ रामदास स्वामीजी का विचार एवं आशिर्वाद लेते थे । आपत्काल में हमें सतर्कता कैसे बरतना चाहिए, इस संदर्भ में समर्थजीद्वारा छ. शिवाजी महाराजजी को दिया गया उपदेश ‘दासबोध’ नामक ग्रंथ में  है । उसमें समर्थजी कहते हैं, ‘सदैव सतर्कता से रहकर आचरण करें, शत्रु-मित्र को ठीक से परखें, एकांत में अत्यधिक विचार कर योजना बनाएं, निरंतर प्रयास करते रहें । इसके पूर्व अनेक महान लोग हो गए, उन्होंने अत्यधिक बुरी स्थिति तथा कष्ट सहन किए हैं । आलस का त्याग कर, बिना कष्ट के अनेक लोगों से मित्रता कर के कार्य करते रहें’।

बालमित्रो, छ. शिवाजी महाराजजी को समर्थ रामदासस्वामीजी से मिलने की लालसा थी । उनकी तीव्र उत्कंठा से उन्हें स्वप्न में एवं तदुपरांत प्रत्यक्ष समर्थ रामदास स्वामीजी के दर्शन हुए । उत्कंठा से हम किसी भी लक्ष्य को साध्य कर सकते हैं ।