गुरुकृपा प्राप्त करने के लिए स्वभावदोष-निर्मूलन का अनिवार्य होना !

गुरुकृपायोग के अनुसार साधना के मार्गपर अग्रसर होते समय साधक अष्टांग मार्ग से प्रयत्नरत रहता है । ‘स्वभावदोष-निर्मूलन’ अष्टांग साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है । इन स्वभाव दोषों के त्याग के बिना साधक के लिए गुरुकृपा तक पहुंचना असंभव है । साधना में स्वभावदोष-निर्मूलन का महत्त्व निम्नलिखित कथा से ध्यान में आता है ।

एक शिष्य ने अपने महान गुरु से विनती की, ‘‘आचार्य, आप मुझे आत्मसाक्षात्कार का पथ दिखाएं !’’ उसपर गुरुने कहा, ‘‘वत्स, आत्मसाक्षात्कार का पथ बडा कठिन होता है । उस पथ से चलनेवाले साधक को अनेकविध समस्याओं से जूझना पडता है । यदि तुम्हारी उतनी पात्रता है, तो मुझे वह मार्ग बताने में कोई आपत्ति नहीं !’’

उसी क्षण उस जिज्ञासु शिष्य ने कहा, ‘‘गुरुदेव मार्ग में आई समस्याओं से लडकर मैं मेरे लक्ष्य की ओर अग्रसर होऊंगा ।’’ उसपर आचार्य बोले, ‘‘एकांतवास में जाकर निष्काम भाव से गायत्री मंत्र का उच्चारण करो । एक वर्ष किसी से भी बात न करना एवं किसी से संपर्क न रखना । एक वर्ष पूर्ण होनेपर मुझसे आकर मिलो ।’’ शिष्य ने अपने आचार्य की आज्ञा का पालन किया ।

एक वर्ष बीत गया । गुरु ने अपनी महरी से कहा, ‘‘आज हमारा शिष्य हम से मिलने आएगा । तुम अपने झाडू से उसपर भरपूर धूल छिडको ।’’ महरी ने गुरु की आज्ञा का पालन किया । धूल से उस शिष्य की संपूर्ण देह भर गई । शिष्य क्रोधाग्नि में उस महरी को मारने के लिए दौड पडा परंतु वह भाग गई ।

स्नान कर वह शिष्य अपने गुरु की सेवा करने के लिए खडा हो गया । गुरु ने कहा, ‘‘वत्स, तुम तो अभी भी सांपोंसमान काट रहे हो । इसलिए वही साधना एक वर्ष और करो ।’’ इस बातपर साधक मन ही मन कुपित हुआ; परंतु आत्मतत्त्व जानने की तीव्र जिज्ञासा से वह पुनः साधना करने लगा । (देखते-देखते ही) उसकी साधना का दूसरा वर्ष भी पूर्ण हो गया ।

एक वर्ष पूर्ण होनेपर गुरु ने अपनी महरी से कहा, ‘‘आज हमारा शिष्य इस मार्ग से आएगा । तुम उसकी देह को झाडू से स्पर्श करो । महरी ने गुरु की आज्ञा से शिष्य की देह को झाडू लगाया । इसलिए शिष्य क्रोधित हो गया । उसने महरी के ऊपर अपशब्दों का उच्चारण किया एवं वह स्नान के लिए निकल पडा ।

स्नान कर वह गुरु के सामने खडा हो गया तथा कह पडा, ‘‘गुरुदेव, अब आत्मसाक्षात्कार का मार्ग बताएं ।’’ गुरुदेव ने कहा, ‘‘वत्स, अब तुम सांपसमान काटते नहीं हो, परंतु सांपसमान फुफकार अवश्य फुफकार रहे हो ! इसलिए और एक वर्ष साधना करो ।’’ शिष्य तीसरे वर्ष की साधना करने के लिए निकल पडा ।

तीसरा वर्ष भी पूर्ण हो गया । गुरु ने महरी से (सेविका से) कहा, ‘‘आज हमारा शिष्य आएगा । तुम उसपर गंदगी से भरी टोकरी पलट दो । उसने गुरु की आज्ञा का पालन किया । परंतु इस बार शिष्य क्रोधित नहीं हुआ । वह महरी को (सेविका को) नमस्कार करते हुए बोला, ‘‘माता, आप महान हो । आप विगत तीन वर्षों से मेरे दुर्गुण नष्ट करने के लिए प्रयत्न कर रही हैं । मैं आपके इन उपकारों को कदापि नहीं भूल सकूंगा । आप सदैव मेरे उद्धार के लिए प्रयत्नरत रहें ।’’ ऐसा कहकर शिष्य स्नान करने के लिए चल पडा ।

स्नानकर शिष्य अपने गुरुचरणों के समीप पहुंच गया । उसने गुरु को वंदन कर उनसे आत्मसाक्षात्कार की विनती की । गुरु ने कहा, ‘‘अब तुम आत्मसाक्षात्कार के लिए पात्र हो !’’ तदुपरांत गुरु ने उसे आत्मसाक्षात्कार के रहस्य बताए ।

– साहित्य वाचस्पती श्री देवेंद्र मुनि शास्त्री (‘जिन खोजा तिन पाइयां’)

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