एकलव्य की गुरुदक्षिणा


गुरुदक्षिणामें अंगूठा देनेवाला एकलव्य

एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य से पूछा, गुरुदेव, क्या आप मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करेंगे ?’’

गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष समस्या उत्पन्न हो गई; क्योंकि उन्होंने पितामह भीष्म को वचन दिया था कि केवल राजकुमारों को ही विद्या सिखाएंगे । एकलव्य राजकुमार नहीं था, इसलिए उसे विद्या सिखाना सम्भव नहीं था । द्रोणाचार्य ने एकलव्य की प्रार्थना अस्वीकार कर दी ।

एक बार द्रोणाचार्य, पांडव तथा कौरव धनुर्विद्या का अभ्यास करने के लिए अरण्य पहुंचे । उनके साथ एक कुत्ता भी था । कुत्ता आगे निकल गया तथा एकलव्य के पास जा पहुंचा । एकलव्य को देखकर कुत्ता भौंकने लगा ।

एकलव्य ने कुत्ते के मुंहपर सात बाण इस प्रकार मारे कि कुत्ते को चोट भी न पहुंचे तथा उसका भौंकना भी रुक जाए । कुत्ता गुरु द्रोणाचार्य, पांडव एवं कौरवों के पास लौट आया ।

अर्जुन के समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा, यह वचन गुरु द्रोणाचार्य ने दिया था; परन्तु यह कोई अधिक सीखा हुआ धनुर्धर था । गुरु के समक्ष समस्या निर्माण हो गई । एकलव्य की अटूट श्रद्धा देखकर गुरुदेव ने पूछा, मेरी मूर्ति के सामने बैठकर तुमने धनुर्विद्या सीखी है, ऐसा तुमने कहा है; परन्तु गुरुदक्षिणा नहीं दी है ।

एकलव्य : आप जो मांगेगे, वह गुरुदक्षिणा दूंगा ।

गुरु द्रोणाचार्य : तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा दो !

एकलव्य ने एक क्षण भी विचार नहीं किया तथा अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में अर्पण कर दिया ।

गुरु द्रोणाचार्य : वत्स ! मैं ने अर्जुन को वचन दिया है । यद्यपि वह धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ रहेगा; परन्त्तु जबतक आकाश में सूर्य, चंद्र एवं नक्षत्र है, तबतक लोग तुम्हारी गुरुनिष्ठ, तुम्हारी गुरुभक्ति का स्मरण करेंगे, तुम्हारा यशगान गाएंगे !

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ, ‘बोधकथा’

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