व्यवहार में रहकर भी रखना चाहिए अनुसंधान ईश्वर से !

जब रावणद्वारा सीता का हरण किया गया तब प्रभु रामचंद्र शोक करने लगे । यह देखकर देवी पार्वती ने भगवान शंकर से कहा, ‘‘आप जिस देवता का नाम अहोरात्र जपते है, जरा देखिए वह अपनी पत्नी के लिए कितना शोक कर रहा है! अधिकतर समय में तो सामान्य व्यक्ति भी इतना शोक नहीं करते ।’’ यह सुनकर शंकर बोले, ‘‘पार्वती ! यह तुम्हारा भ्रम है । प्रभु रामचंद्र का यह शोक दिखावा है, वास्तव नहीं ! भगवंत ने मनुष्य देह धारण किया है, इसलिए वे उसके अनुसार वर्तन कर रहे है । देवी पार्वती ने कहा, ‘‘आप जो कहते हो वह मुझे सत्य नहीं लगता । क्योंकि ‘सीता…सीता’ कहकर राम पेड को आलिंगन दे रहे है । वे सीता के लिए वास्तव में ही पागल हुए है !’’ इसपर शंकर बोले, ‘‘हम ऐसा करेंगे कि, तुम सीता का रूप लेकर उनके मार्ग में जाकर खडी रहना । क्या होता है, यह हम देखेंगे ।’’ जैसे निश्चित किया गया था, उसके अनुसार पार्वती ने सीता का रूप धारण किया और वह प्रभु रामचंद्र जा रहे थे, उस मार्गपर जाकर खडी हो गई; परंतु प्रभु रामचंद्र ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया ।

अनेक बार उनके सामने आकर भी वे ध्यान ही नहीं दे रहे है, यह देखकर पार्वती ने उनसे कहा, ‘‘यह क्या ! मैं – सीता आपके सामने खडी हूं ।’’ उस समय प्रभु श्रीराम किंचित हंसे और बोले, ‘‘जगन्माते ! आप आदिमाया हो ! मैंने आपको पहचाना । आप अपने स्थानपर लौट जाइए ।’’ ये शब्द सुनकर देवी पार्वती एकदम लज्जित हुई और बोली, ‘‘राघवेंद्र, मैं भगवान शंकर की आज्ञा से आपकी परीक्षा लेनेके लिए यहां आई थी । अब मुझे समझा कि, आप साक्षात श्रीविष्णू हो !

‘मैंने भगवान शिव की बात नहीं सुनी । प्रभु राम के विषय में कुत्सित बुद्धि से विचार किया था । इसलिए अब उन्हें क्या उत्तर दिया जाए इसका देवी पार्वती को पश्चात्ताप हुआ । ‘‘तुमने रामचंद्र की परिक्षा ली ?’’ ऐसा पूछकर भगवान शिव जान गए कि, देवी का मुझपर अविश्वास है और उन्होंने देवी का मनःपूर्वक त्याग कर वे कैलास पर्वतपर गए । कैलास जाते समय मार्ग में आकाशवाणी हुई, ‘‘हे परमेश्वर, आप धन्य हो ! आपकी प्रतिज्ञा धन्य है !’’ यह आकाशवाणी सुनकर देवी पार्वतीने पूछा, ‘‘आपने कौनसी प्रतिज्ञा की थी ?’’ भगवान शिवने श्रीविष्णू के सामने की प्रतिज्ञा देवी पार्वती को नहीं बताई थी । जब देवी यह जान गई कि, ‘पती ने उसका त्याग किया है’ तब वह दक्षकन्या सती पार्वती दुखी हुई । तब अन्यों ने उसे अनेक कथा बताकर उसका शोक दूर किया ।

तात्पर्य : हम व्यवहार में कार्य करते समय इसका अभिनय हमें उत्तम रूप से निभाना चाहिए । परंतु वे भावनाओं को भीतर मन के भीतर ईश्वर से अनुसंधान रखना चाहिए और बाहर प्रपंच का अपना कर्तव्य निभाना चाहिए ।’

संदर्भ : श्री गोंदवलेकर महाराज यांचे चरित्र आणि वाङ्मय, पृ. ६९५
शिवपुराण, प्र. न. जोशी.

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