अध्‍यात्‍म

अधिकांश लोगोंको, ‘सुख राई समान एवं दुःख पर्वत समान’ लगता है। कलियुगमें सामान्‍य मनुष्‍यके जीवनमें सुख लगभग २५ प्रतिशत एवं दुःख ७५ प्रतिशत होता है । केवल मनुष्‍यकी ही नहीं, अपितु अन्‍य प्राणिमात्रोंकी भागदौड भी अधिकाधिक सुखप्राप्‍तिके लिए ही होती है । इसके लिए प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति पंचज्ञानेन्‍द़्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा विषयसुख भोगनेका प्रयत्न करता है; परन्‍तु विषयसुख तात्‍कालिक एवं निम्‍न श्रेणीका होता है, तो दूसरी ओर आत्‍मसुख, अर्थात आनन्‍द चिरकालीन एवं सर्वोच्‍च श्रेणीका होता है । अध्‍यात्‍म वह शास्‍त्र है, जो आत्‍मसुख प्रदान करता है । ‘सुखं न विना धर्मात् तस्‍मात् धर्मपरो भवेत्‌।’ अर्थात ‘खरा सुख (आनन्‍द) धर्मपरायण हुए बिना नहीं मिलता’; इसीलिए धर्मपरायण होना चाहिए । साधनाद्वारा आत्‍मसुख प्राप्‍त करनेसे लौकिक व पारलौकिक सुखका आनुषंगिक फल भी प्राप्‍त होता है ।

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