इतिहास का विकृतीकरण : सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक विवेचन

१. ब्रिटिशों द्वारा बताए इतिहास को हिन्दुओं की मान्यता मिलने का कारण

यहां ऐसा प्रश्‍न निर्माण होता है कि २० वीं शताब्दी में हमने भी इसी इतिहास को मान्यता क्यों दी ? इसका कारण है आज भी जारी अंग्रेजों की शिक्षापद्धति! इंग्लैंड १८ वीं शताब्दी तक २० राज्यों में विभाजित था । उनमें से १८ राज्यों में भिन्न-भिन्न राजा राज्य करते थे और मूल लंदन तथा आसपास के प्रदेश पर एक राजा राज्य कर रहा था । इस राजा को केंद्र मानकर उसका गुणगान करनेवाला लेखन करने से इंग्लैंड एक बडा संघराज्य बनेगा, इस उद्देश्य से इतिहास रचा गया । इसके लिए वहां के लोगों ने गंभीरता से और प्रामाणिक प्रयत्न किए ।

२. भारत का इतिहास लिखने में ब्रिटिशों का दृष्टिकोण

भारत में अनेक चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं । भारत सहस्रों वर्ष पूर्व से एक सांस्कृतिक राष्ट्र है । यह अंग्रेजों को ज्ञात नहीं था तथा उन्होंने इंग्लैंड में नवीनता से ऐसे प्रयत्न किए थे, इसलिए उन्हें सामने रखकर उन्हें भारत में एकसंघ राज्य निर्माण करना था । इसलिए उन्होंने देहली के राजा को केंद्र मानकर उसी दृष्टि से इतिहास का लेखन किया। रमेशचंद्र मुजूमदार जैसे मेधावी इतिहासकार ने भी अत्यंत निष्ठा से तथा सत्यनिष्ठा से इतिहास लिखा; परंतु ब्रिटिशों का दृष्टिकोण सामने रखकर ही लिखा ।

३. ईस्वी १९१२ से पूर्व देहली भारत की राजधानी कभी भी न होना

देहली को केंद्रबिंदु मानने के कारण तथा वहां मुसलमान राजा होने के कारण दक्षिण और मध्य भारत के सातवाहन, पांडव, चोल, चेर, कदंब, काकतीय, यादवों के विशाल हिन्दू राज्य इन इतिहासकारों को नहीं दिखे और वे कहते हैं कि भारत में मुगलों का राज्य था । यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि ईस्वी १९१२ से पूर्व देहली भारत की राजधानी कभी भी नहीं थी । महाभारत के समय हस्तिनापुर, उससे पूर्व अयोध्या, सातवाहनों के काल में पैठण, अनेक वर्षों तक उज्जैन, पाटलीपुत्र, पेशावर भारत की राजधानियां थीं । हर्षवर्धन के समय कन्नौज भारत की राजधानी थी । ईस्वी १९१२ में अंग्रेजों ने पहली बार देहली को भारत की राजधानी बनाया, वह भी आधे भारत की ! आधा भारत इसलिए कि आज भारत ने रूस, अमेरिका, फ्रान्स, जर्मनी जैसे विविध राष्ट्रों के साथ अपमानकारक समझौते किए हैं, तब भी तकनीकी दृष्टि से भारत इन राष्ट्रों का दास नहीं है । इसी प्रकार ६ रियासतों ने अंग्रेजों के साथ अपमानकारक समझौते किए थे । इस कारण केवल वे अंग्रेजों के आधिपत्य में थे, वह भी ईस्वी १९१२ से १९४७ इस कालावधि में, मात्र ३५ वर्ष ! वे ब्रिटिशों के दास नहीं थे, यह भी ध्यान देनेयोग्य है।

४. अनुचित इतिहास परिवर्तित करने के कुछ उपाय

अब प्रश्‍न यह है कि इस लिखे गए अनुचित इतिहास को ठीक कैसे किया जाए? इसमें पहला सूत्र यह है कि इसे कौन सुधारेगा ?

अ. भारत में धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का राज्य है, यह भ्रम दूर करना

शासन चलानेवाले लोग सत्तांतर की प्रक्रिया द्वारा सत्ता में हैं । लोकतंत्र में मतों के लिए जो ‘हम हम’ ऐसा कहने लगे हैं, उसे ‘तामसिक अभेदवाद’ कहा जा सकता है। स्वयं को वर्तमान शासकों के साथ एकाकार करने का प्रयत्न करना, तमस है । ‘भारत में धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का राज्य है’, इस भ्रम में रहना, तमस और अज्ञान है । हम विधायकों, सांसदों को मत देकर चुनावों में जीत दिलाते हैं, अर्थात ‘हमारा राज्य है’, इस भ्रम में रहते हैं ।

आ. राजनीति के सनातन नियमों के अनुसार चलना

भारत में वर्तमान स्थिति में यूरो-ईसाई शासन के उत्तराधिकारी वंशजों का राज्य है । उसे परिवर्तित करने के लिए राजनीति के सनातन नियमों के अनुसार चलना होगा ।

इ. ‘प्रत्येक अनुचित घटना के लिए हम उत्तरदायी हैं’, ऐसा मानना छोड दें !

‘जो कुछ भी अनुचित हो रहा है, उसके लिए हम दोषी हैं’, ऐसा मानने से कुछ भी साध्य नहीं होगा । इतिहास बताता है, ‘आत्मग्लानि तथा हीनता, थकान, निराशा से कोई भी समाज कभी भी प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता ।’ इसलिए आपस में कितनी भी चर्चा करें; परंतु भारतीय समाज के दोष बतानेवाला और गुणगान न करनेवाला एक भी वाक्य समाज में न बोलें । अन्यथा आप गोहत्या करनेवालों से भी बडे अपराधी बनेंगे ।

ई. स्वयं को हीन न समझना

विश्‍व के यूरो-ईसाई आदि विविध समाज की बातों पर हम मुग्ध हो गए हैं; परंतु इतिहास बताता है कि उनमें हमसे भी कई गुना अधिक कुप्रथाएं तथा अनिष्ट रीतियां हैं। वे लोग अपनी निंदा स्वयं ही नहीं करते । इसलिए हमें भी स्वयं को हीन समझने का कोई कारण नहीं है ।
इंग्लैंड और यूरोप में २० वीं शताब्दी तक यूरो-ईसाई लोग स्त्री में आत्मा नहीं मानते थे । पादरी के वश न होनेवाली तथा दुराचार करने के लिए सिद्ध न होनेवाली स्वतंत्र स्त्री को ‘डायन’ समझकर उसे जीवित जला दिया जाता, उबलते हुए तेल में डाला जाता अथवा घोडे की पूंछ से बांधकर मार्ग पर दौडाया जाता था । इसे ‘धर्माज्ञा’ कहा जाता था! ऐसे कुकृत्यों के लिए यूरो-ईसाई लोग अपनी निंदा स्वयं नहीं करते। स्त्रियों पर अत्याचार, अनाचार, भेदभाव यह सब कोई गुंडे अथवा आततायी लोग नहीं करते थे, धर्म के नाम पर ये सब चला करते थे ! यह सब यूरोप के लोगों ने ही लिखकर रखा है । अब वे इन बातों की चर्चा नहीं करते । ‘हम इतने नीच और अधम थे’, ऐसा कहकर वे दुःख नहीं जताते। आधुनिक जगत् में वे आधुनिक प्रश्‍नों पर चर्चा करते हैं। इसलिए मेरा कहना है कि अपनेआप को हीन मत समझिए ।

५. समाज में उत्साह के साथ विचरना

दुःख गहरा हो, तो वाणी दृढ और कडी होनी चाहिए । अन्यों के आगे अपना दुखडा कितने दिन रोएंगे ? दुःख को भीतर रखकर समाज में उत्साह के साथ विचरना चाहिए ।

६. ‘हिन्दू राजनीति’ शब्द की व्याख्या

इतिहास कहता है कि महा-उत्साही, महाबली, महावीर ये भारतीय राजाओं की प्रमुख विशेषताएं मानी जाती थीं । राजनीति में उत्साह अत्यंत आवश्यक है । समाज में उत्साह निर्माण करना संभव न हो, तो हिन्दू दृष्टि से राजनीति में न उतरें। समाज में अभूतपूर्व उत्साह निर्माण करना तथा धर्मजागरण करना, इसे ही ‘हिन्दू राजनीति’ कहा गया है । स्वामी रामदेवजी, माता अमृतानंदमयी, श्री श्री रविशंकरजी जैसे अनेक संतों के तथा सनातन संस्था जैसी आध्यात्मिक संस्थाओं के नेतृत्व में विश्‍व में अद्भुत धर्मजागरण हो रहा है । अद्वितीय आध्यात्मिक चेतना फैल रही है । असुर व आततायी लोगों का कालानुसार जिसके लिए जैसा आवश्यक है, वैसे निर्दलन होगा ।

७. स्वतंत्र विद्याकेंद्रों की स्थापना करना

आज इतिहास लिखनेवाले यूरो-ईसाई दलाल हैं । वे खरा इतिहास नहीं लिखेंगे । हमारे स्वतंत्र विद्याकेंद्र होने चाहिए, जहां हमारा, भारत
का गौरवशाली इतिहास लिखा जाए । संभव हो, तो वर्ष १९४७ तक जो राजा राज्य करते थे, उनकी सहायता लेनी चाहिए ।

८. पुरुषार्थ करने का कारण

पूर्वकर्मों के कारण ही हमें भारत में मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है । यदि हमने अपने स्वधर्म का पालन नहीं किया, तो अगले जन्म में हम भी मुसलमान, ईसाई आदि बनकर पापाचारी होंगे अथवा उल्लू, गधा, घोडा ऐसी योनि में जन्म लेंगे । अपने जीवन को सार्थक करने के लिए तथा उन्नत मनुष्य के रूप में जन्म पाने के लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक है । इसलिए कोई यह न समझे कि हम देश को चला रहे हैं । देश संपूर्ण दल, संगठन, पक्ष के प्रयास तथा, समाज और कालपुरुष के आशीर्वाद से चलते हैं ।

९. पुरुषार्थ करने के लिए भारतीय जनता

पक्ष को मिला अवसर (जिसका उसने उपयोग नहीं किया) आज ‘भारतीय जनता पक्ष’ के पास न्यूनतम १० इंग्लैंड के बराबर शासन है । उन्हें अपनी स्वतंत्र इतिहास की पुस्तकें पढाने के लिए किसने रोका है । जब तक ऐसी पुस्तकें नहीं लिखी जातीं, तब तक कम से कम वीर सावरकरजी का इतिहास तो पढाइए ।

१०. भारत का खरा इतिहास लिखना आवश्यक

आज शिक्षाव्यवस्था यूरो-ईसाई संप्रदाय के अधीन है । उनके माध्यम से सिखाया जानेवाला इतिहास खरा नहीं है; इसीलिए हमें सबका मत लेकर ‘भारत में भारत की दृष्टि से भारतका ही इतिहास सिखाया जाए’, ऐसा एक प्रस्ताव पारित करना होगा; परंतु आज के राज्यकर्ता ऐसा नहीं करेंगे! हमें ही उसे लिखना होगा ।

– प्रा. रामेश्‍वर मिश्र ‘पंकज’ (वर्तमान में गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी के निर्देशक के रूप में सक्रिय हैं ।)

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भारतीय सभ्यता लाखों वर्षों से चली आ रही प्राचीन संस्कृतियों में से एक होने का विज्ञान द्वारा मानना

वस्तुतः यह जगत् दैवाधीन है । एक सू्क्ष्म सत्ता इस विश्‍व को चला रही है । अब विज्ञान ने भी लुप्त हुईं संस्कृतियों का अध्ययन किया है । इसलिए प्रचलित यूरोप की बौद्धिक विचारधारा में दरारें पड गईं हैं । अनेक पुस्तकों में बताया गया है कि लाखों वर्षों से मानवी सभ्यताएं चली आई हैं । प्राचीन संस्कृतियां एक से बढकर एक थीं । भारत एक ऐसी संस्कृति है जिनके पास विमान तथा वैज्ञानिक शक्ति थी । इस संदर्भ
में ठोस प्रमाण मिल रहे हैं । इस मानवीय सभ्यता में काल के प्रवाहानुसार उतार-चढाव आते रहते हैं ।

स्वयं को दोष न देना

अंग्रेज भारत में आए, तब उनके पास विज्ञान नहीं था । हमें वास्तविक इतिहास पता ही नहीं है । रोबर्ट क्लाईव १९ वर्ष का एक आवारा और बेरोजगार लडका था । उस पर महाभियोग चलाए गए हैं । ऐसे लोगों ने आकर हम पर राज किया । यह कालमहिमा है । इसलिए स्वयं को दोष न दें । अंत में ‘क्या होगा’, यह परम सत्ता ही निश्‍चित करती है ।