पूजा में उपयुक्त विविध घटकों का महत्त्‍व

देवतापूजन में पूजासामग्री होना आवश्यक ही है । यह घटक ईश्वरीय कृपा प्राप्त होने में महत्त्वपूर्ण कडी है । प्रत्येक घटक का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व समझ लेने से, इन घटकों के प्रति मन में भाव निर्माण होता है और धार्मिक व सामाजिक कृति अधिक भावपूर्ण हो पाती है । इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए यहां हलदी, कुमकुम, तिलक, पुष्प, अक्षत, बाती, श्रीफल, उदबत्ती, कर्पूर आदि का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व व उसकी विशेषताएं बताई गई हैं ।

१. पूजा की थाली में विभिन्न घटकों की रचना किस प्रकार करें ?

प्रत्यक्ष में देवता पूजन आरंभ करने से पूर्व, पूजनसामग्री एवं अन्य घटकों की संरचना उचित ढंगसे करनी आवश्यक है । उक्त संरचना यदि पंचतत्त्वों के स्तर पर आधारित होगी, तो वह अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित होगी । इसलिए कि, ऐसी संरचना से ब्रह्मांड में कार्यरत पंचतत्त्वों का उचित संतुलन एवं नियमन होकर, जीव को देवता से प्रक्षेपित सगुण एवं निर्गुण तरंगों का अधिकाधिक लाभ मिलने में होती है । ऐसी रचना माया से ब्रह्म एवं पृथ्वी से आकाशतक के पंचतत्त्वों से संबंधित जीव का मार्गक्रमण दर्शाती है । प्रत्येक स्तर पर देवतापूजन के  नसे घटक अंतर्भूत हैं एवं उनकी रचना किस प्रकार करें, इस विषय की विस्तृत जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘पूजाघर एवं पूजा के उपकरण  अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व एवं संरचना)’ में दी गई है । सबसे प्रथम स्तर पर जो घटक आवश्यक है, वह है पूजा की थाली । पूजा की थाली में विविध घटकों की संरचना किस प्रकार करें, यह आगे दिया गया है ।

२. सप्तनदियों का जल

गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी व नर्मदाके जल अर्थात् सप्तनदियों के एकत्रित जलको पूजा के कलश में डालते हैं । वर्तमान काल में सप्तनदियों का जल सरलता से उपलब्ध नहीं होता । पूजा हेतु कलश में डालने के लिए सप्तनदियों का जल उपलब्ध न हो, तो सामान्य जल का प्रयोग करते हैं । यह जल डालते समय `गंगे च यमुनेचैव ।’ इस मंत्रका उच्चारण कर सप्तनदियों का आवाहन किया जाता है ।

३. रुई के वस्त्र

रुई के वस्त्र जीव के शरीर की सुषुम्नानाडी का प्रतिनिधित्व करते हैं । रुईका धागा बनाते समय दूध की अपेक्षा चंदन का प्रयोग करें । चंदन के अनुलेपन से देवताओं की तरंगें शीघ्र कार्यरत होकर, रुई के वस्त्र की ओर आकर्षित होती हैं । ये सात्त्विक वसन (वस्त्र) देवता के गले में पहनाने से देवता अपना सगुण रूप शीघ्र साकार कर, जीव के लिए कम कालावधि में कार्य करते हैं ।

४. जनेऊ

देवताओं को जनेऊ अर्पण करना (पहनाना), अर्थात् देवताओं के व्याप्त प्रकाश को जनेऊ के धागे के वलय में मर्यादित कर, उन्हें द्वैत के कार्य हेतु आवाहन करना । जनेऊ धागों से बनाया जाता है तथा मंत्रशक्ति से लैस होता है । जनेऊ अर्पण करना, पूजाविधि में द्वैत-अद्वैत अनुसंधान साधने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । पूजा के उपरांत जब जीव जनेऊ धारण करता है, तो उसे देवता के सात्त्विक चैतन्य का लाभ मिलता है ।

५. हलदी-कुमकुम

हलदी धरती के नीचे उगती है, इसलिए धरती पर उगनेवाली वस्तुओं की अपेक्षा हलदी में भूमि तरंगों की मात्रा बहुत अधिक होती है । कुमकुम हलदी से ही बनाया जाता है । देवता को हलदी-कुमकुम चढाने से देवता द्वारा प्राप्त तरंगों के साथ हलदी-कुमकुम में विद्यमान भूमि तरंगों का लाभ पूजक को होता है, जिससे उपासक की सात्त्विकता में वृद्धि होती है तथा वातावरण के अन्य रज-तम (कष्टदायक) तरंगों को सहने की क्षमता बढती है ।

अ. शुद्ध कुमकुम को कैसे पहचानें ?

शुद्ध हलदी, चूने का निथरा हुआ जल एवं थोडे से शुद्ध कर्पूर द्वारा शुद्ध कुमकुम बनाया जाता है । यद्यपि यह कुमकुम हलदी से बना है, फिर भी इस कुमकुम में हलदी की सुगंध पूर्णरूप से नष्ट हो जाती है एवं उसके स्थान पर दैवी सुगंध निर्मित होकर सर्वत्र फैल जाती है । हलदी की सुगंध का बोध उसे सूंघने पर होता है; परंतु शुद्ध कुमकुम की सुगंध एक निश्चित दूरीतक फैलती है । आर्द्रता होते हुए भी शुद्ध कुमकुम पूर्णरूप से सूखा होता है । उसका स्पर्श बर्फ समान ठंंडा होता है । शुद्ध कुमकुम रक्तवर्ण का होता है; इसलिए उसमें लौह घटक की मात्रा अधिक होती है । इस कुमकुम को माथे पर लगाने से अनिष्ट शक्तियां भ्रूमध्य से प्रवेश नहीं कर सकतीं । प्राचीन काल (सत्ययुग, त्रेतायुग एवं द्वापरयुग)में शुद्ध कुमकुम मिलता था; परंतु युगानुसार कुमकुम की सात्त्विकता घटती गई । वर्तमान कलियुग में गिने-चुने लोग ही सात्त्विक कुमकुम बनाते हैं ।

६. सिंदूर

सिंदूर में शक्ति की मात्रा अधिक होती है । इसलिए स्त्रियां यथासंभव इसका उपयोग न करें; क्योंकि, उसकी मारक शक्ति स्त्रियों के लिए असहनीय होती है । अतः, उन्हें उस शक्ति से कष्ट होने की आशंका अधिक होती है । सिंदूर का उपयोग हनुमानजी की पूजा में किया जाता है । सिंदूर में तेल मिलाकर हनुमानजी की मूर्ति पर लेप किया जाता है । इस कारण हनुमानजी की मूर्ति में विद्यमान मारक तत्त्व इस सिंदूर में आकृष्ट होकर उसी में संचित रहता है ।

७. गुलाल

गुलाल से निर्मित सूक्ष्म वायु की गंंध-तरंगों की ओर ब्रह्मांड से शक्तितत्त्व आकर्षित होता है । उसी प्रकार, गुलाल के कारण वायुमंडल की चैतन्य युक्त सुप्ततरंगें प्रवाही बन जाती हैं और इसका लाभ पूजक को मिलता है ।

८. बुक्का

यज्ञ की विभूति में, घी के दीये से निर्मित सात्त्विक तेजरूपी काजल मिलाने पर बुक्का बनता है । बुक्के को प्रक्षोभक माना जाता है । ‘प्रक्षोभक’का अर्थ है, ‘विध्वंसकारी बीजों को अपने मारक सामर्थ्य से धराशायी करनेवाला ।’ बुक्के में विद्यमान विभूति के चैतन्य को घी के काजल में  द्यमान रजोगुण की जोड मिलने पर उससे प्रक्षेपित चैतन्य प्रक्षोभक, अर्थात वायुमंडल पर मारक तत्त्वरूपी परिणाम करता है । इससे वातावरण के  रज-तम कणों की संचार प्रक्रिया प्रतिबंधित होती है ।

९. तिलक

अ. अष्टगंध

अष्टगंध में केसर, कर्पूर, अगर (एक सुगंधित वनस्पति), तगर, कस्तूरी, अंबर (एक पेड), गोरोचन (गायके पेट में बनी पथरी) तथा
रक्तचंदन ये आठ प्रकारकी सुगंध समाहित होती हैं ।

आ. चंदन

चंदन’ शीतल, रूक्ष एवं स्वादमें कडवा होता है तथा पचने में हलका एवं आह्लाददायक होता है । यह श्रम, क्षय, विष, कफ, तृषा (प्यास), रक्तपित्त एवं दाह का नाशक है ।

इ. रक्तचंदन

रक्तचंदन के लेप से जीव की सूर्यनाडी सक्रिय होती है एवं उसके शरीर में तेजकणों की वृद्धि होती है । यह तेज जीव की आत्मशक्ति जाग्रत कर शरीर में विद्यमान काले शक्ति बीज नष्ट करता है ।

१०. इत्र

देवता गंधप्रिय एवं नादप्रिय होते हैं । गंध-तरंगें पृथ्वीतत्त्व से संबंधित होती हैं । इस कारण वे जीव को प्रत्यक्ष स्थूलदेह के स्तर पर चैतन्य का लाभ प्राप्त करवाती हैं । जहांतक संभव हो, देवताओं को उग्र गंध के इतर अर्पित न करें । उग्र गंध से प्रक्षेपित गंध-तरंगों की ओर देवता का केवल सगुणतत्त्व आकर्षित होता है; इसके विपरीत मंद एवं मनको आह्लाददायक लगनेवाले गंध से प्रक्षेपित गंध-तरंगों की ओर ब्रह्मांड में विद्यमान देवता का निर्गुणतत्त्व अल्पावधि में आकर्षित होता है एवं जीव को चैतन्य का लाभ दीर्घकाल तक मिलता रहता है ।

११. पुष्प

मोगरा (बेला), जाही (एक प्रकार की चमेली), रजनीगंधा इत्यादि पुष्पों में ऐसी लगन होती है कि देवताओं के पवित्रक अधिकाधिक उनकी ओर आकर्षित हों । उन पुष्पों की कलियां सूर्यास्त से खिलना आरंभ होकर ब्राह्ममुहूर्त की आतुरता से प्रतीक्षा करती हैं । उनकी लगन के कारण देवताओं के पवित्रक उनकी ओर अधिक मात्रा में आकर्षित होते हैं । इसलिए उनकी सुगंध भी अन्य पुष्पों की तुलना में अधिक होती है एवं मन को संतुष्ट करती है ।

कुछ पुष्प (उदा. श्वेत एवं गुलाबी रंग के अडहुल के पुष्प) सूर्योदय के उपरांत भी खिलते रहते हैं । ऐसे पुष्पों में देवताओं के पवित्रक अल्प अथवा ना के बराबर होते हैं; उनमें सुगंध भी नहीं होती । देवता को ऐसे पुष्प चढाना कागद के (कागजके) पुष्प चढाने समान ही है । ऐसे पुष्प चढाने से पूजक को अधिक लाभ नहीं होता ।

तुलसी (मंजिरी), गेंदा, गुलाब, केवडा आदि पुष्प प्रतिदिन थोडे-थोडे खिलते हैं व वृक्ष पर अधिक दिन नवनूतन (तरो-ताजा) रहते हैं । ऐसे पुष्पों की सुगंध मंद होती है और उनमें गुरुतत्त्व को आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । जहां गुरुतत्त्व कार्यरत अथवा प्रगट होता है, वहां इन पुष्पों की सूक्ष्म सुगंध पुष्पों का अस्तित्व न होते हुए भी दूर तक फैलती रहती है ।

१२. अक्षत

पूजाविधि के प्रत्येक घटक पर तथा देवता की मूर्ति पर पंचोपचार या षोडशोपचार के उपरांत, अक्षत छिडककर सब में विद्यमान देवत्व को
जाग्रत कर, कार्य के लिए उनका आवाहन करते हैं । पंचोपचार-पूजा में कोई घटक अनुपलब्ध हो, तो अक्षत का उपयोग किया जाता है ।

देवता को अक्षत चढाने पर देवता की शक्ति से अक्षत में अच्छी शक्ति, कंपन निर्मित होते हैं । समान कंपनसंख्यावाले दो तानपुरों के दो तारों में से एक को छेडने पर (नाद उत्पन्न करने पर) दूसरी तार से भी समान नाद उत्पन्न होने लगता है । उसी प्रकार देवता की शक्ति के स्पंदन अक्षत में (चावलमें) निर्मित हुए होें, तो घर के चावल के भंडार में भी वैसे ही स्पंदन उत्पन्न हो जाते हैं । शक्ति से आवेशित चावल को वर्षभर प्रसाद के रूप में ग्रहण कर सकते हैं ।

१३. नारियल

नारियल में शिव, दुर्गा, गणपति, श्रीराम व श्रीकृष्ण, इन पांच देवताओं की तरंगें आकृष्ट करने की व उन्हें आवश्यकता के अनुसार प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । इसलिए नारियल को सर्वाधिक शुभ फल अर्थात् श्रीफल, सर्वाधिक सात्त्विकता प्रदान करनेवाला फल कहते हैं ।

१४. उदबत्ती

उदबत्ती में देवताओं से प्रक्षेपित सूक्ष्म-गंध ग्रहण करने की क्षमता है । इसलिए उदबत्ती लगाने पर उससे उसकी सुगंध के साथ-साथ उक्त सूक्ष्म-गंध भी प्रक्षेपित होती है । उदा. जब चंदन की उदबत्ती लगाई जाती है तब देवताओं से आकृष्ट चंदन की सूक्ष्म-गंध भी उदबत्ती की सुगंध के साथ प्रक्षेपित होती है ।

१५. धूप

धूप की सुगंध तीव्र होती है । इस सुगंध से विशिष्ट देवता का तत्त्व कार्यरत होकर, वह धूप के धुएं के माध्यम से सूक्ष्म-शस्त्रों का रूप लेकर वातावरण के रज-तमसे लडती है, जिससे वातावरण में सत्त्वगुण की प्रबलता बढ जाती है और स्वाभाविक ही वातावरण तथा वास्तु की शुद्धि होती है । इस हेतु पूजा अथवा आरती से पहले धूप दिखाना योग्य होता है ।

१६. कर्पूर

कर्पूर में सुगंध अर्थात पृथ्वीतत्त्व होता है । कर्पूर जलाने पर उसमें विद्यमान तेजतत्त्व प्रगट होता है । सुगंध एवं अग्नि के माध्यम से कर्पू रमें विद्यमान शिवतत्त्व वातावरण में प्रचूर मात्रा में कार्यरत होकर, वातावरण की सात्त्विकता को बढाता है । कर्पूर की सुगंध के कारण श्वास द्वारा शरीर में शिवतत्त्व प्रवेश करता है और वह श्वसनमार्ग में विद्यमान काली शक्ति एवं कष्टदायक वायु को नष्ट करता है । कर्पूर की सुगंध के कारण श्वसन के विकार घट जाते हैं ।

पूजाविधि के माध्यम से होनेवाले सात्त्विक तरंगों के प्रक्षेपण में कष्टदायक तरंगों की बाधा को दूर कर वातावरण को चैतन्यमय बनाए रखने में पूजाविधि सहायक होती है एवं उससे वातावरण की शुद्धि भी होती है ।

१७. नैवेद्य (भोग)

प्रत्येक देवता का नैवेद्य निर्धारित होता है । उस देवता को वह नैवेद्य प्रिय होता है, उदा. श्रीविष्णु को खीर अथवा सूजी का हलवा, गणेशजी को मोदक, देवी को पायस । उस विशिष्ट नैवेद्य में उस विशिष्ट देवता की शक्ति अधिक आकृष्ट होती है । तदुपरांत वह नैवेद्य, अर्थात् प्रसाद हमारे द्वारा ग्रहण किए जाने पर उसमें विद्यमान शक्ति हमें प्राप्त होती है ।

१८. दक्षिणा

अ. पूजा में दक्षिणा रखने का शास्त्रीय आधार क्या है ?

दक्षिणा रखने से जीव में त्याग की भावना उत्पन्न होती है । त्याग से ही विरक्ति की भावना उत्पन्न होती है एवं विरक्ति से वैराग्य उत्पन्न होता है । वैराग्य भाव के कारण माया में रहते हुए भी जीव के लिए ईश्वरीय सायुज्य अखंड रूप से बनाए रखना संभव होता है । हिन्दू धर्म का मूल त्याग में छुपा है । दक्षिणा देकर त्याग सीखना कर्मकांड की पहली सीढी है । इसीलिए दक्षिणा देने का महत्त्व अनन्य है ।

दक्षिणा को (धन को) लक्ष्मीरूप, अर्थात शक्तिस्वरूप मानकर उसकी पूजा करें । इससे हमारे किसी भी कर्म को शक्ति की संधि मिलकर, वह अकर्म-कर्म बन जाता है । उस कर्म से प्राप्त फल, लेन-देन निर्मित न कर, पुण्य कर्म में जमा होता है ।

आ. दक्षिणा को सुपारी अथवा नारियलसहित पान के दो पत्तों पर क्यों रखना चाहिए ?

दक्षिणा कभी भी अकेले नहीं दी जाती । सुपारी अथवा नारियल को पान के पत्तों पर रखकर देना महत्त्वपूर्ण है । इस प्रक्रिया में दक्षिणा शक्तिरूप में तथा सुपारी अथवा नारियल शिवरूप में कार्य करते हैं । शिव-शक्ति को उनके कार्य के लिए पान के पत्तों की कर्मभूमि दी जाती है, अर्थात उन्हें एक प्रकार से आसन ही दिया जाता है । पान के पत्ते सदा दो रखे जाते हैं; दो पत्ते शिव-शक्ति के कार्य के द्वैत को दर्शाते हैं । इस प्रकार शिव-शक्ति को सुपारी अथवा नारियल एवं दक्षिणा के (धन के) रूप में पान के पत्तों की कर्मभूमि पर आसनस्थ करना चाहिए । उनका उचित आदर रख, उन्हें सगुण में कार्य करने की प्रार्थना करनी चाहिए ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पूजासामग्रीका महत्त्व