बच्चों के व्यक्तित्व का विकास कैसे करें ?

‘मैं राष्ट्र के आधारस्तंभ का निर्माण कर रहा हूं ’, ऐसा दृष्टिकोण अभिभावकोंद्वारा रखना

 ‘अभिभावकों, हम केवल एक बच्चे के अभिभावक न होकर राष्ट्रके अभिभावक हैं । आज हम देखते हैं कि समाज एवं राष्ट्र की स्थिति अच्छी नहीं है । इसका कारण यह है कि हम अभिभावक के रूप में राष्ट्र को सुसंस्कारित पीढी नहीं दे सके । प्रत्येक अभिभावक राष्ट्र को सुसंस्कारित पीढी दें, तो राष्ट्र की स्थिति परिवर्तित हो सकती है । प्रत्येक अभिभावक ‘मैं अपने बालक को बना रहा हूं’, ऐसा न समझकर ‘मैं राष्ट्र को बना रहा हूं’, ऐसा समझें । व्यक्ति से समाज तथा समाज से राष्ट्र बनता है । इसलिए प्रत्येक अभिभावक को ‘मैं राष्ट्र का आधारस्तंभ बना रहा हूं’, ऐसा व्यापक दृष्टिकोण रखकर ही अपने बच्चे को शिक्षा देनी चाहिए । हमारा ध्येय व्यापक होगा, तो हमें आनंद प्राप्त होगा । हमारा ध्येय संकुचित होगा, तो तनाव आता है । आज अभिभावक के रूप में हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो गया है । इसलिए ही हमारे जीवन में तनाव भी बढा है । हम बच्चे की ओर ‘वह बडा होगा, मुझे आधार देगा एवं अधिक पैसा  कमाएगा’, इस दृष्टि से देखते हैं । ‘बच्चे सुखासीन जीवन जीएं, हमें सुखी करें, हमारा नाम रौशन करें एवं हमें संभालें’, ऐसा संकुचित दृष्टिकोण रखेंगे, तो बच्चों के साथ सहज तथा आनंददायी व्यवहार नहीं होता । ऐसा लगने का कारण हमारा अहंकार ही है ।  मेरे बच्चे सुसंस्कारित होने चाहिए, उसके लिए राष्ट्र एवं धर्म का रक्षण करना चाहिए । वह राष्ट्राभिमानी होना चाहिए । उसे स्वयं की अपेक्षा अन्यों के लिए जीना चाहिए, उसे भोगी होने की अपेक्षा त्यागी होना चाहिए’, ऐसा व्यापक दृष्टिकोण रखना चाहिए । आज अभिभावकों का दृष्टिकोण व्यापक न होने से पीढी स्वार्थी हो गई है । ‘त्याग ·आनंद तथा भोग ·दुःख’, इस सूत्र की उन्हें कल्पना नहीं है ।

‘त्याग का संस्कार ही जीवन की नींव है’, यह दृष्टिकोण बच्चों को आवश्यक है

 ‘परीक्षा में मुझे ही अधिक अंक (माकर्स) प्राप्त हों, मुझे ही अधिक पैसा प्राप्त हो एवं सभी कुछ मुझे ही प्राप्त हो’, ऐसा विचार करनेवाली, स्वार्थ से लिप्त तथा केवल अपना ही विचार करनेवाली पीढी आज हम निर्माण कर रहे हैं । इसलिए हमें स्थान-स्थानपर भ्रष्टाचार दिखाई दे रहा है । इसका मूल है स्वार्थ ! उसमें ‘मैं, मुझे एवं मेरा’ इतना ही विचार होता है । ‘अन्यों का विचार हमें करना चाहिए’, यह मूल्य जीवन से जैसे निर्वासित हो गया है । हमें बच्चों को त्याग सिखाना चाहिए । स्वयं के लिए कोई भी जीता है; परंतु अन्यों के लिए जीने में ही खरा आनंद है । यह अभिभावकों को स्वयं की कृति से बच्चों को सिखाना चाहिए । हमने उन्हें स्वार्थी बनाया है इसलिए बडे होकर यह पीढी स्वयं के स्वार्थ एवं सुख के लिए हमें वृद्धाश्रम में रखेगी । ‘हमें दूसरों के लिए जीना चाहिए, त्याग का संस्कार ही जीवन की नींव है’, यह दृष्टिकोण हमें अभिभावक के नाते बच्चों को देना चाहिए । व्यापक जीव स्वयं आनंदी रहता है एवं अन्यों को भी आनंद देता है ।

– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरुजी), पनवेल.

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