पू. गोलवलकर गुरुजी

गोलवलकर घराना

गोलवलकर घराना मूलतः ग्राम गोलवली, तहसील संगमेश्वर, जनपद रत्नागिरि के रहनेवाले थे । इस ग्राम के पाध्ये घराने का एक परिवार नागपुर गया और वहां उसने अपना उपनाम बदलकर गोलवलकर रख लिया । गुरुजी के पिताजी का नाम सदाशिवराव तथा माताजी का नाम लक्ष्मीबाई था । पिता ज्ञानमार्ग से साधना करते थे, तो मां भक्तिमार्ग से । इन्हें नौ संतानें हुर्इं, जिन में चौथी संतान माधव (गुरुजी) ही जीवित रहे ।

जन्म एवं प्राथमिक शिक्षा

माघ वद्य एकादशी शके १८२७ को (१९ फरवरी १९०६ को) नागपुर में बालक माधव का जन्म हुआ । माधव को मराठी, हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषाएं अच्छी आती थीं । उसने शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य के संस्कृत ग्रंथ पढे थे । उनकी स्मरणशक्ति बहुत अच्छी थी । एकबार, माधव के वर्ग में शिक्षक ने तुलसी रामायण की बहुत प्रशंसा की । उसने तुरंत निश्चय किया कि मुझे संपूर्ण तुलसी रामायण पढना है । माधव प्रातःकाल से मध्यरात्रि तक बैठे रामायण पढता रहा । भोजन के समय उसे बलपूर्वक उठाना पडता था । वह रात्रि में अत्यंत थोडा सोता था । पांच दिन में उसने वह ग्रंथ पूरा पढ लिया । केवल पढा नहीं, उसने उस ग्रंथ के अनेक दोहे कंठस्थ भी कर लिए । इसके पश्चात वह मां को रामायण की कथाएं सुनाने लगा । कभी-कभी जब मां कथा के मध्यमें पूछती, ‘उस समय हनुमानजी ने क्या कहा ?’ तब माधव वह कथा सुनाने में एक घंटा खो जाता था ।

महाविद्यालयीन शिक्षा

माधवराव ने विज्ञान विषय से उच्चतर माध्यमिक (इंटरमिडिएट) परीक्षा उत्तीर्ण हुए । पश्चात, वे चिकित्सा महाविद्यालय में प्रवेश लेने के लिए लखऊ गए । किंतु, उन्हें वहां प्रवेश नहीं मिला । अतः, उन्होंने काशीस्थित हिंदु विश्वविद्यालय में बी.एस्सी.में प्रवेश लिया ।

वे गंगा के तटपर बैठकर उसकी पवित्र धारा को देखते-देखते ध्यानमग्न हो जाते थे । माधवराव को इस ध्यान में इतना आनंद मिलने लगा कि यह उनकी दिनचर्या का अंग बन गया । वे मदनमोहन मालवीय के पास भी जाते रहते थे तथा अनेक बार श्रीरामकृष्ण आश्रम आ-जा चुके थे । उन्होंने उस काल में भारतीय तत्त्वज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि विषयोंपर मौलिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया । वर्ष १९२६ में वे बी.एस.सी. उत्तीर्ण हुए । वे वर्ष १९२८ में प्राणिशास्त्र विषय से प्रथम श्रेणी में एम.एस.सी. हुए ।

संघ से संबंध

इसी काल में माधवराव का संपर्क नागपुर के रामकृष्ण मठ के प्रमुख स्वामी भास्करेश्वरानंद से हुआ और यह संपर्क दृढ होता गया । उस कालमें उन्होंने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का अध्ययन किया । परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड जाने से माधवरावने काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की चाकरी की । पढाने की कला में पारंगत होने के कारण वे विद्यार्थियों में प्रिय हो गए । विद्यार्थी उन्हें बडे आदर से ‘गुरुजी’ कहने लगे !

भैयाजी दाणी एवं काशी हिंदु विश्वविद्यालय के अन्य स्वयंसेवकों के कारण माधवराव का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ । जब संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार काशी आए, तब उनकी उनसे भेंट हुई । डॉक्टर की बोल-चाल से वे बहुत प्रभावित हुए । वे अब मध्य-मध्य में संघ की शाखा में जाने लगे ।

डॉ. हेडगेवारजीने उन्हें नागपुर का संघ का विजयादशमी उत्सव देखने के लिए बुलाया । तत्पश्चात, वे अपने साथ माधवराव को भंडारा भी ले गए । इस यात्रा में उन्होंने डॉक्टर से संघ के संबंध में अनेक प्रश्न किए । डॉक्टर के उत्तर सुनकर वे बडे संतुष्ट हुए । नागपुर से लौटनेपर माधवराव काशी की संघशाखा की ओर विशेष ध्यान देने लगे ।

संघ के स्वयंसेवक माधवराव के पास आने लगे । माधवराव भी स्वयंसेवकों के पास जाने लगे । तात्त्विक चर्चा से आगे बढकर प्रत्यक्ष प्रेम एवं बंधुत्व का व्यवहार आरंभ हुआ । वे बडी आत्मीयता से स्वयंसेवकों की समस्याएं सुलझाने लगे । अनेक बार वे स्वयंसेवकों को लेकर पंडित मदनमोहन मालवीयजी के पास जाया करते थे । संघ का कार्य देखकर मालवीयजीने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के परिसर में संघशाखा के लिए स्थान एक छोटा-सा भवन बनाकर दिया ।

अब, डॉ. हेडगेवार भी उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे । जब उन्होंने डॉक्टरजी के मुख से अपने लिए प्रथम बार सुना कि ‘‘गुरुजी, आज आपको शाखा में स्वयंसेवकों के सामने बोलना है ।’’ तब, वे कुछ संकोच करते हुए बोले, ‘‘यह क्या है डॉक्टरजी, आप मुझे गुरुजी कहते हैं ?’’ इसपर डॉ. हेडगेवारजीने कहा, ‘‘क्या आप केवल विशिष्ट वर्ग के विद्यार्थियों के गुरुजी हैं ? आप तो सबके गुरुजी हैं !’’

संघकार्य में प्रत्यक्ष ध्यान देना

मुंबई में संघशाखाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी । ‘कार्य अल्प, बातें अधिक’, ऐसी स्थिति थी । यह सुनने के पश्चात, गुरुजी डॉ. हेडगेवारजीसे बोले, ‘‘अभी महाविद्यालयों को छुट्टी है । आप कहेंगे, तो मैं मुंबई जाकर वहां की शाखा की स्थिति ठीक करने का प्रयत्न करूंगा ।’

गुरुजी के मुख से ये शब्द सुनकर डॉक्टरजी को बहुत आनंद हुआ । उन्होंने तुरंत गुरुजी को मुंबई भेजा । बहुत परिश्रम कर गुरुजीने मुंबई के ढीले संघकार्य में उत्साह का संचार कर दिया । स्वयंसेवकों के मन की शंका-कुशंकाएं दूर कीं । सफल गुरुजी नागपुर लौटे ।

वर्ष १९३४ के ग्रीष्मकाल में अकोला में संघशिक्षा वर्ग लगा । डॉक्टरजी ने गुरुजी को इस वर्ग का सर्वाधिकारी नियुक्त किया । उन्होंने उस वर्ग के छोटे-बडे सभी स्वयंसेवकों की ठीक से संभाला । रोगी स्वयंसेवकों के पास बैठकर उन्होंने अपने हाथों से उनकी सेवा की ।

विवाह न करने का दृढ निश्चय

वर्ष १९३५ में वे विधि परीक्षा (वकालत) उत्तीर्ण हुए । इससे पहले पिताजीने गुरुजी से विवाह करने के विषय में पूछा था । उस समय गुरुजीने उन्हें स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘‘विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं है । मुझे नहीं लगता कि प्रपंच में (गृहस्थ जीवन में) आनंद मिलेगा ।’’ मां का प्रेमपूर्ण आग्रह का छोडना कठिन होता है । फिर भी, गुरुजीने मां से कहा, ‘‘मेरे जैसे अनेकों का वंश नष्ट होनेसे यदि समाज का थोडा भी भला होता होगा, तो आज की परिस्थिति में वह आवश्यक है । हमारा वंश नष्ट होने का थोडा भी दुःख मुझे नहीं है ।’’

गुरुमंत्र

अचानक अक्टूबर १९३६ के तीसरे सप्ताह में, दीपावली से सात-आठ दिन पहले गुरुजी किसी को बताए बिना कोलकाता से १२० मील दूरस्थित सारगाछी में स्वामी अखंडानंद के आश्रम में पहुंच गए । स्वामी अखंडानंदने श्रीगुरुजी को दीक्षा दी, गुरुमंत्र दिया तथा समाज में जाकर कार्य करने के लिए आशीर्वाद दिया । पश्चात, गुरुजी नागपुर लौटे ।

सरसंघचालकपदपर नियुक्ति

वर्ष १९३८ में नागपुर में आयोजित संघशिक्षा वर्गमें गुरुजीने सर्वाधिकारी के रूप में उत्तम सेवा की । शारीरिक कार्यक्रम, भोजन व्यवस्था, रुग्णालय, स्वच्छता आदि सभी विषयों में उन्होंने छोटी-छोटी बातोंपर भी ध्यान रहता था । रात्रि भोजन मंडप में जाकर देखते थे कि वहां की आग ठीक से बुझाई गई है अथवा नहीं । यदि आग ठीक से नहीं बुझी होती, तो उसे ठीक से बुझाकर ही सोते थे ।

वर्ष १९३९ में उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अखिल भारतीय सरकार्यवाह घोषित किया गया । उस समय डॉक्टरजीने संघ के  कुछ प्रमुख लोगों की बैठक ली, जो १० दिन चली । इस बैठक में संघ का संगठन, आज्ञा, प्रार्थना, प्रतिज्ञा इत्यादि विषयों में अनेक मूलभूत निर्णय लिए गए । आज प्रचलित संघ की संस्कृत भाषा में कही जानेवाली प्रार्थन का मूल मराठी भाषा में प्रार्थना गुरुजीने इसी बैठक में लिखी थी । इसके पश्चात, डॉक्टरजीने गुरुजी को संघ की शाखा खोलने के लिए कोलकाता भेजा । गुरुजी अब डॉक्टरजीके साथ यात्रा करने लगे । बहुधा डॉक्टरजी उन्हें ही बोलने के लिए कहा करते थे तथा वे क्या बोलते हैं, वैâसे बोलते है, इस ओर उनका पूरा ध्यान रहता था । आगे, डॉक्टरजी की योजनानुसार सरकार्यवाह के रूप में गुरुजीने देश के अनेक प्रमुख नगरों में गए । वर्ष १९४० में उन्हें पुनः नागपुर के संघशिक्षा वर्ग का सर्वाधिकारी नियुक्त किया गया । इस वर्ग के समारोप कार्यक्रम में डॉ. हेडगेवारजी का भाषण अंतिम था । डॉक्टरजीने इसी काल में अपने उत्तराधिकारी के रूप में गुरुजी का नाम सबको बताया । २१ जून १९४० को डॉ. हेडगेवारजी के निधन के पश्चात, गुरुजी सरसंघचालक बने ।

निर्भयता

सरसंघचालक बनने के उपरांत गुरुजी का भारत-भ्रमण आरंभ हुआ, जो निरंतर ३३ वर्षतक चलता रहा । पैदल, बैलगाडीसे, तांगासे, साइकिलसे, मोटरसे, रेलगाडीसे, विमानसे, इस प्रकार समयपर जो भी वाहन मिला, उससे उन्होंने लाखों मील भ्रमण किया । संघकार्य को बढाने के लिए वे प्रत्येक प्रांत में वर्ष में दो बार अवश्य जाते थे ।

जिस समय दूसरा महायुद्ध आरंभ हुआ, उस समय बंगाल में गुरुजी का भ्रमण कार्यक्रम निश्चित हो चुका था । जापानी आक्रमणों से बंगाल के लोग भयभीत हो गए थे । तब, संघ स्वयंसेवकों ने गुरुजी से भ्रमण कार्यक्रम निरस्त करने की विनती की । गुरुजीने संबंधित साधक को तुरंत तार भेजकर सूचित किया कि कार्यक्रम निर्धारित समयपर ही होगा । पश्चात, यह कार्यक्रम बिना बाधा के पूरा हुआ । गुरुजी संघस्वयंसेवकों के समक्ष बोले, ‘‘जब अन्य लोग घबराए हुए हों, तब हमें दृढता से डटे रहना चाहिए । संघ को सर्वत्र निर्भयता निर्माण करनी है । जब हम ही डर जाएंगे, तो जनता सहायता के लिए किसकी ओर देखेगी ?’’

संघपर पहला प्रतिबंध तथा गुरुजी को बंदी बनाया जाना

जनवरी १९४८ में गांधीजी की हत्या हो गई । गांधीजी के हत्या से संघ अथवा श्री गुरुजी का कोई संबंध नहीं था । फिर भी, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं कांग्रेसी नेता संघपर झूठे आरोप करते रहे । पूरे देश का सामाजिक वातावरण इष्र्या, मत्सर एवं द्वेष से भर गया । गांधीजी का नाम लेकर शासक और राजनेता झूठ बोलने लगे । आकाशवाणी एवं समाचार-पत्रों के माध्यम से पूरे देश में विष पैलाया जाने लगा ।

गांव-गांव के संघस्वयंसेवकों को पीटा जाने लगा । कुछ को जीवित जला दिया गया, तो कुछ के घर जला दिए गए । पुलिसने गुरुजी को बंदी बनाया । ४ फरवरी १९४८ को सरकारने संघकार्य को अवैध घोषित कर दिया ।

संपूर्ण देश में पुलिसने सहस्रों स्वयंसेव कों विभिन्न झूठे आरोपों में पकडा । गुरुजीपर गांधीजी की हत्या का षडयंत्र रचने, मार-पीट करना, सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयत्न करना, ऐसे आरोप लगाए गए थे । कुछ ही दिनों में सरकार को अपनी मूर्खता ज्ञात होनेपर गुरुजीपर से सर्व आरोप हटाकर, उन्हें कारागृह में केवल स्थानबद्ध रखा गया । कारागृह में उन्होंने संघकार्य के चिंतन के साथ आसन, ध्यानधारणा, जप-तप इत्यादि अधिक अधिक प्रमाण में आरंभ किया । ६ अगस्त १९४८ को सरकारने उन्हें कारागार से मुक्त कर पुनः १२ नवंबर १९४८ को बंदी बना लिया ।

तब, संघ ने स्वयंसेवकों से देशव्यापी सत्याग्रह का आवाहन किया । छोटे-बडे नगरों में संघ के अधिकारियोंने सत्याग्रह की घोषणा की । अंत में संघ का विधान लिखितरूप में लेकर संघपर से प्रतिबंध हटा दिया गया ।

अन्य सेवाकार्य

गुरुजी के आदेश से डॉ. शामाप्रसाद मुखर्जी राजनीतिक क्षेत्र में काम करने लगे । ‘भारतीय जनसंघ’ नाम से एक राजनीतिक दल की स्थापन की गई । अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण, महारोगी सेवा, राष्ट्रीय शिशु शिक्षा आदि अनेक संस्थाएं गुरुजी की प्रेरणा से कार्य करने लगीं । डॉ. हेडगेवारजीके समाधि स्थानपर स्मृति मंदिर का निर्माण, कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक  का निर्माण तथा सैकडों शिक्षा संस्थाएं श्री गुरुजीकी प्रेरणा से खडी हुर्इं ।

महानिर्वाण

वर्ष १९६९ से श्री गुरुजी का स्वास्थ्य निरंतर बिगडने लगा । फिर भी, उनका संघकार्य के लिए भ्रमण निरंतर चलता रहा । वे हंसीमें कहते, ‘रेलगाडी का डिब्बा ही मेरा घर है ।’ १८ मई १९७० को ज्ञात हुआ कि उन्हें कर्करोग हुआ है !

ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, ५ जून १९७३ को श्री गुरुजी, नश्वर शरीर का त्याग कर सच्चिदानंद ईश्वर में विलीन हो गए । पू. गुरुजी के चरणों में हमारा लाख-लाख प्रणाम !’

– श्री. मुळ्ये, रत्नागिरि.